हिम्मत-ए-इल्तिजा नहीं बाक़ी ज़ब्त का हौसला नहीं बाक़ी इक तिरी दीद छिन गई मुझ से वर्ना दुनिया में क्या नहीं बाक़ी...
बे-दम हुए बीमार दवा क्यूँ नहीं देते तुम अच्छे मसीहा हो शिफ़ा क्यूँ नहीं देते दर्द-ए-शब-ए-हिज्राँ की जज़ा क्यूँ नहीं देते ख़ून-ए-दिल-ए-वहशी का सिला क्यूँ नहीं देते...
इश्क़ मिन्नत-कश-ए-क़रार नहीं हुस्न मजबूर-ए-इंतिज़ार नहीं तेरी रंजिश की इंतिहा मालूम हसरतों का मिरी शुमार नहीं...
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे बोल ज़बाँ अब तक तेरी है तेरा सुत्वाँ जिस्म है तेरा बोल कि जाँ अब तक तेरी है...
तुम आए हो न शब-ए-इंतिज़ार गुज़री है तलाश में है सहर बार बार गुज़री है जुनूँ में जितनी भी गुज़री ब-कार गुज़री है अगरचे दिल पे ख़राबी हज़ार गुज़री है...
तह-ए-नुजूम, कहीं चाँदनी के दामन में हुजूम-ए-शौक़ से इक दिल है बे-क़रार अभी ख़ुमार-ए-ख़्वाब से लबरेज़ अहमरीं आँखें सफ़ेद रुख़ पे परेशान अम्बरीं आँखें...
वो जिस की दीद में लाखों मसर्रतें पिन्हाँ वो हसन जिस की तमन्ना मैं जन्नतें पिन्हाँ हज़ार फ़ित्ने तह-ए-पा-ए-नाज़ ख़ाक-नशीं हर इक निगाह ख़ुमार-ए-शबाब से रंगीं...
यूँ बहार आई है इस बार कि जैसे क़ासिद कूचा-ए-यार से बे-नैल-ए-मराम आता है हर कोई शहर में फिरता है सलामत-दामन रिंद मय-ख़ाने से शाइस्ता-ख़िराम आता है...
कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया वो लोग बहुत ख़ुश-क़िस्मत थे जो इश्क़ को काम समझते थे या काम से आशिक़ी करते थे...
पेकिंग यूँ गुमाँ होता है बाज़ू हैं मिरे साथ करोड़ और आफ़ाक़ की हद तक मिरे तन की हद है दिल मिरा कोह ओ दमन दश्त ओ चमन की हद है...
बरखा बरसे छत पर मैं तेरे सपने देखूँ बर्फ़ गिरे पर्बत पर मैं तेरे सपने देखूँ सुब्ह की नील-परी मैं तेरे सपने देखूँ कोयल धूम मचाए मैं तेरे सपने देखूँ...
शहर में चाक-गरेबाँ हुए नापैद अब के कोई करता ही नहीं ज़ब्त की ताकीद अब के लुत्फ़ कर ऐ निगह-ए-यार कि ग़म वालों ने हसरत-ए-दिल की उठाई नहीं तम्हीद अब के...
तीरगी है कि उमंडती ही चली आती है शब की रग रग से लहू फूट रहा हो जैसे चल रही है कुछ इस अंदाज़ से नब्ज़-ए-हस्ती दोनों आलम का नशा टूट रहा हो जैसे...
सितम की रस्में बहुत थीं लेकिन न थी तिरी अंजुमन से पहले सज़ा ख़ता-ए-नज़र से पहले इताब जुर्म-ए-सुख़न से पहले जो चल सको तो चलो कि राह-ए-वफ़ा बहुत मुख़्तसर हुई है मक़ाम है अब कोई न मंज़िल फ़राज़-ए-दार-ओ-रसन से पहले...
हम पर तुम्हारी चाह का इल्ज़ाम ही तो है दुश्नाम तो नहीं है ये इकराम ही तो है करते हैं जिस पे तान कोई जुर्म तो नहीं शौक़-ए-फ़ुज़ूल ओ उल्फ़त-ए-नाकाम ही तो है...
वो बुतों ने डाले हैं वसवसे कि दिलों से ख़ौफ़-ए-ख़ुदा गया वो पड़ी हैं रोज़ क़यामतें कि ख़याल-ए-रोज़-ए-जज़ा गया...
ताज़ा हैं अभी याद में ऐ साक़ी-ए-गुलफ़ाम वो अक्स-ए-रुख़-ए-यार से लहके हुए अय्याम वो फूल सी खुलती हुई दीदार की साअत वो दिल सा धड़कता हुआ उम्मीद का हंगाम...
जुनूँ की याद मनाओ कि जश्न का दिन है सलीब-ओ-दार सजाओ कि जश्न का दिन है तरब की बज़्म है बदलो दिलों के पैराहन जिगर के चाक सिलाओ कि जश्न का दिन है...
शफ़क़ की राख में जल बुझ गया सितारा-ए-शाम शब-ए-फ़िराक़ के गेसू फ़ज़ा में लहराए कोई पुकारो कि इक उम्र होने आई है फ़लक को क़ाफ़िला-ए-रोज़-ओ-शाम ठहराए...
शाम के पेच-ओ-ख़म सितारों से ज़ीना ज़ीना उतर रही है रात यूँ सबा पास से गुज़रती है जैसे कह दी किसी ने प्यार की बात...
कब तक दिल की ख़ैर मनाएँ कब तक रह दिखलाओगे कब तक चैन की मोहलत दोगे कब तक याद न आओगे बीता दीद उम्मीद का मौसम ख़ाक उड़ती है आँखों में कब भेजोगे दर्द का बादल कब बरखा बरसाओगे...
दार की रस्सियों के गुलू-बंद गर्दन में पहने हुए गाने वाले हर इक रोज़ गाते रहे पायलें बेड़ियों की बजाते हुए नाचने वाले धूमें मचाते रहे...
दिन ढला कूचा ओ बाज़ार में सफ़-बस्ता हुईं ज़र्द-रू रौशनियाँ उन में हर एक के कश्कोल से बरसें रिम-झिम इस भरे शहर की नासूदगियाँ...
कुछ दिन से इंतिज़ार-ए-सवाल-ए-दिगर में है वो मुज़्महिल हया जो किसी की नज़र में है सीखी यहीं मिरे दिल-ए-काफ़िर ने बंदगी रब्ब-ए-करीम है तू तिरी रहगुज़र में है...
सारी दीवार सियह हो गई ता-हलक़ा-ए-दाम रास्ते बुझ गए रुख़्सत हुए रहगीर तमाम अपनी तंहाई से गोया हुई फिर रात मिरी हो न हो आज फिर आई है मुलाक़ात मिरी...