अगस्त1955
शहर में चाक-गरेबाँ हुए नापैद अब के कोई करता ही नहीं ज़ब्त की ताकीद अब के लुत्फ़ कर ऐ निगह-ए-यार कि ग़म वालों ने हसरत-ए-दिल की उठाई नहीं तम्हीद अब के चाँद देखा तिरी आँखों में न होंटों पे शफ़क़ मिलती-जुलती है शब-ए-ग़म से तिरी दीद अब के दिल दुखा है न वो पहला सा न जाँ तड़पी है हम ही ग़ाफ़िल थे कि आई ही नहीं ईद अब के फिर से बुझ जाएँगी शमएँ जो हवा तेज़ चली ला के रक्खो सर-ए-महफ़िल कोई ख़ुर्शीद अब के

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