ज़िंदाँ की एक शाम
शाम के पेच-ओ-ख़म सितारों से ज़ीना ज़ीना उतर रही है रात यूँ सबा पास से गुज़रती है जैसे कह दी किसी ने प्यार की बात सेहन-ए-ज़िंदाँ के बे-वतन अश्जार सर-निगूँ महव हैं बनाने में दामन-ए-आसमाँ पे नक़्श-ओ-निगार शाना-ए-बाम पर दमकता है मेहरबाँ चाँदनी का दस्त-ए-जमील ख़ाक में घुल गई है आब-ए-नुजूम नूर में घुल गया है अर्श का नील सब्ज़ गोशों में नील-गूँ साए लहलहाते हैं जिस तरह दिल में मौज-ए-दर्द-ए-फ़िराक़-ए-यार आए दिल से पैहम ख़याल कहता है इतनी शीरीं है ज़िंदगी इस पल ज़ुल्म का ज़हर घोलने वाले कामराँ हो सकेंगे आज न कल जल्वा-गाह-ए-विसाल की शमएँ वो बुझा भी चुके अगर तो क्या चाँद को गुल करें तो हम जानें

Read Next