नक़्श फ़रियादी है किस की शोख़ी-ए-तहरीर का काग़ज़ी है पैरहन हर पैकर-ए-तस्वीर का काव काव-ए-सख़्त-जानी हाए-तन्हाई न पूछ सुब्ह करना शाम का लाना है जू-ए-शीर का...
किसी को दे के दिल कोई नवा-संज-ए-फ़ुग़ाँ क्यूँ हो न हो जब दिल ही सीने में तो फिर मुँह में ज़बाँ क्यूँ हो...
लाग़र इतना हूँ कि गर तू बज़्म में जा दे मुझे मेरा ज़िम्मा देख कर गर कोई बतला दे मुझे क्या तअज्जुब है जो उस को देख कर आ जाए रहम वाँ तलक कोई किसी हीले से पहुँचा दे मुझे...
जिस बज़्म में तू नाज़ से गुफ़्तार में आवे जाँ कालबद-ए-सूरत-ए-दीवार में आवे साए की तरह साथ फिरें सर्व ओ सनोबर तू इस क़द-ए-दिलकश से जो गुलज़ार में आवे...
मोहब्बत थी चमन से लेकिन अब ये बे-दिमाग़ी है कि मौज-ए-बू-ए-गुल से नाक में आता है दम मेरा...
क़यामत है कि सुन लैला का दश्त-ए-क़ैस में आना तअज्जुब से वो बोला यूँ भी होता है ज़माने में दिल-ए-नाज़ुक पे उस के रहम आता है मुझे 'ग़ालिब' न कर सरगर्म उस काफ़िर को उल्फ़त आज़माने में...
हसद से दिल अगर अफ़्सुर्दा है गर्म-ए-तमाशा हो कि चश्म-ए-तंग शायद कसरत-ए-नज़्ज़ारा से वा हो ब-क़द्र-ए-हसरत-ए-दिल चाहिए ज़ौक़-ए-मआसी भी भरूँ यक-गोशा-ए-दामन गर आब-ए-हफ़्त-दरिया हो...
रहा गर कोई ता-क़यामत सलामत फिर इक रोज़ मरना है हज़रत सलामत! जिगर को मिरे इश्क़-ए-खूँ-नाबा-मशरब लिखे है ख़ुदावंद-ए-नेमत सलामत...
बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना गिर्या चाहे है ख़राबी मिरे काशाने की दर ओ दीवार से टपके है बयाबाँ होना...
सुर्मा-ए-मुफ़्त-ए-नज़र हूँ मिरी क़ीमत ये है कि रहे चश्म-ए-ख़रीदार पे एहसाँ मेरा रुख़्सत-ए-नाला मुझे दे कि मबादा ज़ालिम तेरे चेहरे से हो ज़ाहिर ग़म-ए-पिन्हाँ मेरा...
घर जब बना लिया तिरे दर पर कहे बग़ैर जानेगा अब भी तू न मिरा घर कहे बग़ैर कहते हैं जब रही न मुझे ताक़त-ए-सुख़न जानूँ किसी के दिल की मैं क्यूँकर कहे बग़ैर...
ख़ुदाया जज़्बा-ए-दिल की मगर तासीर उल्टी है कि जितना खींचता हूँ और खिंचता जाए है मुझ से...
जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की लिख दीजियो या रब उसे क़िस्मत में अदू की अच्छा है सर-अंगुश्त-ए-हिनाई का तसव्वुर दिल में नज़र आती तो है इक बूँद लहू की...
रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो हम-सुख़न कोई न हो और हम-ज़बाँ कोई न हो बे-दर-ओ-दीवार सा इक घर बनाया चाहिए कोई हम-साया न हो और पासबाँ कोई न हो...
ग़ुंचा-ए-ना-शगुफ़्ता को दूर से मत दिखा कि यूँ बोसे को पूछता हूँ मैं मुँह से मुझे बता कि यूँ पुर्सिश-ए-तर्ज़-ए-दिलबरी कीजिए क्या कि बिन कहे उस के हर एक इशारे से निकले है ये अदा कि यूँ...
पए-नज़्र-ए-करम तोहफ़ा है शर्म-ए-ना-रसाई का ब-खूँ-ग़ल्तीदा-ए-सद-रंग दावा पारसाई का न हो हुस्न-ए-तमाशा-दोस्त रुस्वा बेवफ़ाई का ब-मोहर-ए-सद-नज़र साबित है दावा पारसाई का...
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे इक खेल है औरंग-ए-सुलेमाँ मेरे नज़दीक इक बात है एजाज़-ए-मसीहा मिरे आगे...
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले डरे क्यूँ मेरा क़ातिल क्या रहेगा उस की गर्दन पर वो ख़ूँ जो चश्म-ए-तर से उम्र भर यूँ दम-ब-दम निकले...
रौंदी हुई है कौकबा-ए-शहरयार की इतराए क्यूँ न ख़ाक सर-ए-रहगुज़ार की जब उस के देखने के लिए आएँ बादशाह लोगों में क्यूँ नुमूद न हो लाला-ज़ार की...
वाँ पहुँच कर जो ग़श आता पए-हम है हम को सद-रह आहंग-ए-ज़मीं बोस-ए-क़दम है हम को दिल को मैं और मुझे दिल महव-ए-वफ़ा रखता है किस क़दर ज़ौक़-ए-गिरफ़्तारी-ए-हम है हम को...
कोह के हों बार-ए-ख़ातिर गर सदा हो जाइए बे-तकल्लुफ़ ऐ शरार-ए-जस्ता क्या हो जाइए बैज़ा-आसा नंग-ए-बाल-ओ-पर है ये कुंज-ए-क़फ़स अज़-सर-ए-नौ ज़िंदगी हो गर रिहा हो जाइए...
मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं सिवाए ख़ून-ए-जिगर सो जिगर में ख़ाक नहीं मगर ग़ुबार हुए पर हवा उड़ा ले जाए वगरना ताब ओ तवाँ बाल-ओ-पर में ख़ाक नहीं...