क़िबला-ए-दिल काबा-ए-जाँ और है सज्दा-गाह-ए-अहल-ए-इरफ़ाँ और है हो के ख़ुश कटवाते हैं अपने गले आशिक़ों की ईद-ए-क़ुर्बां और है...
बात करने में तो जाती है मुलाक़ात की रात क्या बरी बात है रह जाओ यहीं रात की रात ज़र्रे अफ़्शाँ के नहीं किर्मक-ए-शब-ताब से कम है वो ज़ुल्फ़-ए-अरक़-आलूद कि बरसात की रात...
कुछ ख़ार ही नहीं मिरे दामन के यार हैं गर्दन में तौक़ भी तो लड़कपन के यार हैं सीना हो कुश्तगान-ए-मोहब्बत का या गला दोनों ये तेरे ख़ंजर-ए-आहन के यार हैं...
उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...
है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...
गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...
तिरा क्या काम अब दिल में ग़म-ए-जानाना आता है निकल ऐ सब्र इस घर से कि साहिब-ख़ाना आता है नज़र में तेरी आँखें सर में सौदा तेरी ज़ुल्फ़ों का कई परियों के साए में तिरा दीवाना आता है...
शौक़ कहता है पहुँच जाऊँ मैं अब काबे में जल्द राह में बुत-ख़ाना पड़ता है इलाही क्या करूँ...
फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...
हँस के फ़रमाते हैं वो देख के हालत मेरी क्यूँ तुम आसान समझते थे मोहब्बत मेरी बअ'द मरने के भी छोड़ी न रिफ़ाक़त मेरी मेरी तुर्बत से लगी बैठी है हसरत मेरी...
न बेवफ़ाई का डर था न ग़म जुदाई का मज़ा में क्या कहूँ आग़ाज़-ए-आश्नाई का कहाँ नहीं है तमाशा तिरी ख़ुदाई का मगर जो देखने दे रोब किबरियाई का...