Page 3 of 4

रोज़-ओ-शब याँ एक सी है रौशनी दिल के दाग़ों का चराग़ाँ और है...

वो दुश्मनी से देखते हैं देखते तो हैं मैं शाद हूँ कि हूँ तो किसी की निगाह में...

क़िबला-ए-दिल काबा-ए-जाँ और है सज्दा-गाह-ए-अहल-ए-इरफ़ाँ और है हो के ख़ुश कटवाते हैं अपने गले आशिक़ों की ईद-ए-क़ुर्बां और है...

बात करने में तो जाती है मुलाक़ात की रात क्या बरी बात है रह जाओ यहीं रात की रात ज़र्रे अफ़्शाँ के नहीं किर्मक-ए-शब-ताब से कम है वो ज़ुल्फ़-ए-अरक़-आलूद कि बरसात की रात...

करता मैं दर्दमंद तबीबों से क्या रुजूअ जिस ने दिया था दर्द बड़ा वो हकीम था...

कुछ ख़ार ही नहीं मिरे दामन के यार हैं गर्दन में तौक़ भी तो लड़कपन के यार हैं सीना हो कुश्तगान-ए-मोहब्बत का या गला दोनों ये तेरे ख़ंजर-ए-आहन के यार हैं...

ये कहूँगा ये कहूँगा ये अभी कहते हो सामने उन के भी जब हज़रत-ए-दिल याद रहे...

सौ शेर एक जलसे में कहते थे हम 'अमीर' जब तक न शेर कहने का हम को शुऊर था...

अच्छे ईसा हो मरीज़ों का ख़याल अच्छा है हम मरे जाते हैं तुम कहते हो हाल अच्छा है...

वस्ल में ख़ाली हुई ग़ैर से महफ़िल तो क्या शर्म भी जाए तो मैं जानूँ कि तन्हाई हुई...

कहते हो कि हमदर्द किसी का नहीं सुनते मैं ने तो रक़ीबों से सुना और ही कुछ है...

पहलू में मेरे दिल को न ऐ दर्द कर तलाश मुद्दत हुई ग़रीब वतन से निकल गया...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

अपनी महफ़िल से अबस हम को उठाते हैं हुज़ूर चुपके बैठे हैं अलग आप का क्या लेते हैं...

तीर खाने की हवस है तो जिगर पैदा कर सरफ़रोशी की तमन्ना है तो सर पैदा कर...

हम जो पहुँचे तो लब-ए-गोर से आई ये सदा आइए आइए हज़रत बहुत आज़ाद रहे...

सीधी निगाह में तिरी हैं तीर के ख़्वास तिरछी ज़रा हुई तो हैं शमशीर के ख़्वास...

लाए कहाँ से उस रुख़-ए-रौशन की आब-ओ-ताब बेजा नहीं जो शर्म से है आब आब शम्अ...

इन शोख़ हसीनों पे जो माइल नहीं होता कुछ और बला होती है वो दिल नहीं होता...

वस्ल हो जाए यहीं हश्र में क्या रक्खा है आज की बात को क्यूँ कल पे उठा रक्खा है...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

बरहमन दैर से काबे से फिर आए हाजी तेरे दर से न सरकना था न सरके आशिक़...

जो चाहिए सो माँगिये अल्लाह से 'अमीर' उस दर पे आबरू नहीं जाती सवाल से...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

यार पहलू में है तन्हाई है कह दो निकले आज क्यूँ दिल में छुपी बैठी है हसरत मेरी...

तिरा क्या काम अब दिल में ग़म-ए-जानाना आता है निकल ऐ सब्र इस घर से कि साहिब-ख़ाना आता है नज़र में तेरी आँखें सर में सौदा तेरी ज़ुल्फ़ों का कई परियों के साए में तिरा दीवाना आता है...

जवाँ होने लगे जब वो तो हम से कर लिया पर्दा हया यक-लख़्त आई और शबाब आहिस्ता आहिस्ता...

शौक़ कहता है पहुँच जाऊँ मैं अब काबे में जल्द राह में बुत-ख़ाना पड़ता है इलाही क्या करूँ...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हँस के फ़रमाते हैं वो देख के हालत मेरी क्यूँ तुम आसान समझते थे मोहब्बत मेरी बअ'द मरने के भी छोड़ी न रिफ़ाक़त मेरी मेरी तुर्बत से लगी बैठी है हसरत मेरी...

वो और वा'दा वस्ल का क़ासिद नहीं नहीं सच सच बता ये लफ़्ज़ उन्हीं की ज़बाँ के हैं...

मानी हैं मैं ने सैकड़ों बातें तमाम उम्र आज आप एक बात मेरी मान जाइए...

आशिक़ का बाँकपन न गया बाद-ए-मर्ग भी तख़्ते पे ग़ुस्ल के जो लिटाया अकड़ गया...

'अमीर' अब हिचकियाँ आने लगी हैं कहीं मैं याद फ़रमाया गया हूँ...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ...

न बेवफ़ाई का डर था न ग़म जुदाई का मज़ा में क्या कहूँ आग़ाज़-ए-आश्नाई का कहाँ नहीं है तमाशा तिरी ख़ुदाई का मगर जो देखने दे रोब किबरियाई का...

रहा ख़्वाब में उन से शब भर विसाल मिरे बख़्त जागे मैं सोया किया...

सब हसीं हैं ज़ाहिदों को ना-पसंद अब कोई हूर आएगी उन के लिए...

पहले तो मुझे कहा निकालो फिर बोले ग़रीब है बुला लो...

अभी कमसिन हैं ज़िदें भी हैं निराली उन की इस पे मचले हैं कि हम दर्द-ए-जिगर देखेंगे...