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न दरवेशों का ख़िर्क़ा चाहिए न ताज-ए-शाहाना मुझे तो होश दे इतना रहूँ मैं तुझ पे दीवाना...

मैं सिसकता रह गया और मर गए फ़रहाद ओ क़ैस क्या उन्ही दोनों के हिस्से में क़ज़ा थी मैं न था...

'ज़फ़र' बदल के रदीफ़ और तू ग़ज़ल वो सुना कि जिस का तुझ से हर इक शेर इंतिख़ाब हुआ...

देखो इंसाँ ख़ाक का पुतला बना क्या चीज़ है बोलता है इस में क्या वो बोलता क्या चीज़ है रू-ब-रू उस ज़ुल्फ़ के दाम-ए-बला क्या चीज़ है उस निगह के सामने तीर-ए-क़ज़ा क्या चीज़ है...

लोगों का एहसान है मुझ पर और तिरा मैं शुक्र-गुज़ार तीर-ए-नज़र से तुम ने मारा लाश उठाई लोगों ने...

टुकड़े नहीं हैं आँसुओं में दिल के चार पाँच सुरख़ाब बैठे पानी में हैं मिल के चार पाँच मुँह खोले हैं ये ज़ख़्म जो बिस्मिल के चार पाँच फिर लेंगे बोसे ख़ंजर-ए-क़ातिल के चार पाँच...

जो तू हो साफ़ तो कुछ मैं भी साफ़ तुझ से कहूँ तिरे है दिल में कुदूरत कहूँ तो किस से कहूँ...

इश्क़ तो मुश्किल है ऐ दिल कौन कहता सहल है लेक नादानी से अपनी तू ने समझा सहल है गर खुले दिल की गिरह तुझ से तो हम जानें तुझे ऐ सबा ग़ुंचे का उक़्दा खोल देना सहल है...

दौलत-ए-दुनिया नहीं जाने की हरगिज़ तेरे साथ बाद तेरे सब यहीं ऐ बे-ख़बर बट जाएगी...

पान की सुर्ख़ी नहीं लब पर बुत-ए-ख़ूँ-ख़्वार के लग गया है ख़ून-ए-आशिक़ मुँह को इस तलवार के ख़ाल-ए-आरिज़ देख लो हल्क़े में ज़ुल्फ़-ए-यार के मार-ए-मोहरा गर न देखा हो दहन में मार के...

ग़ज़ब है कि दिल में तो रक्खो कुदूरत करो मुँह पे हम से सफ़ाई की बातें...

काफ़िर तुझे अल्लाह ने सूरत तो परी दी पर हैफ़ तिरे दिल में मोहब्बत न ज़री दी दी तू ने मुझे सल्तनत-ए-बहर-ओ-बर ऐ इश्क़ होंटों को जो ख़ुश्की मिरी आँखों को तरी दी...

दिल को दिल से राह है तो जिस तरह से हम तुझे याद करते हैं करे यूँ ही हमें भी याद तू...

कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़-दार में...

सब रंग में उस गुल की मिरे शान है मौजूद ग़ाफ़िल तू ज़रा देख वो हर आन है मौजूद हर तार का दामन के मिरे कर के तबर्रुक सर-बस्ता हर इक ख़ार-ए-बयाबान है मौजूद...

औरों के बल पे बल न कर इतना न चल निकल बल है तो बल के बल पे तू कुछ अपने बल के चल...

भरी है दिल में जो हसरत कहूँ तो किस से कहूँ सुने है कौन मुसीबत कहूँ तो किस से कहूँ जो तू हो साफ़ तो कुछ मैं भी साफ़ तुझ से कहूँ तिरे है दिल में कुदूरत कहूँ तो किस से कहूँ...

ख़ुदा के वास्ते ज़ाहिद उठा पर्दा न काबे का कहीं ऐसा न हो याँ भी वही काफ़िर-सनम निकले...

हाल-ए-दिल क्यूँ कर करें अपना बयाँ अच्छी तरह रू-ब-रू उन के नहीं चलती ज़बाँ अच्छी तरह...

क्यूँकि हम दुनिया में आए कुछ सबब खुलता नहीं इक सबब क्या भेद वाँ का सब का सब खुलता नहीं पूछता है हाल भी गर वो तो मारे शर्म के ग़ुंचा-ए-तस्वीर के मानिंद लब खुलता नहीं...