Page 4 of 4

इल्तिफ़ात-ए-यार था इक ख़्वाब-ए-आग़ाज़-ए-वफ़ा सच हुआ करती हैं इन ख़्वाबों की ताबीरें कहीं...

शिकवा-ए-ग़म तिरे हुज़ूर किया हम ने बे-शक बड़ा क़ुसूर किया...

दिलों को फ़िक्र-ए-दो-आलम से कर दिया आज़ाद तिरे जुनूँ का ख़ुदा सिलसिला दराज़ करे...

ग़ुर्बत की सुब्ह में भी नहीं है वो रौशनी जो रौशनी कि शाम-ए-सवाद-ए-वतन में था...

ख़ूब-रूयों से यारियाँ न गईं दिल की बे-इख़्तियारियाँ न गईं अक़्ल-ए-सब्र-आश्ना से कुछ न हुआ शौक़ की बे-क़रारियाँ न गईं...

फ़ैज़-ए-मोहब्बत से है क़ैद-ए-मिहन मेरे लिए एक बला-ए-हसन शाम-ए-ग़रीबाँ के बराबर कहाँ मज़हब-ए-उश्शाक़ में सुब्ह-ए-वतन...

ख़ूब-रूयों से यारियाँ न गईं दिल की बे-इख़्तियारियाँ न गईं...

ताबाँ जो नूर-ए-हुस्न ब-सिमा-ए-इश्क़ है किस दर्जा दिल-पज़ीर तमाशा-ए-इश्क़ है अरबाब-ए-होश जितने हैं बीमार-ए-अक़्ल हैं उन के लिए ज़रूर मुदावा-ए-इश्क़ है...

मिलते हैं इस अदा से कि गोया ख़फ़ा नहीं क्या आप की निगाह से हम आश्ना नहीं...