मातृ-भू, शत-शत बार प्रणाम ऐ अमरों की जननी, तुमको शत-शत बार प्रणाम, मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम। तेरे उर में शायित गांधी, 'बुद्ध औ' राम,...
पतझड़ के पीले पत्तों ने प्रिय देखा था मधुमास कभी; जो कहलाता है आज रुदन, वह कहलाया था हास कभी;...
संकोच-भार को सह न सका पुलकित प्राणों का कोमल स्वर कह गये मौन असफलताओं को प्रिय आज काँपते हुए अधर।...
हम दीवानों की क्या हस्ती, आज यहाँ कल वहाँ चले मस्ती का आलम साथ चला, हम धूल उड़ाते जहाँ चले आए बनकर उल्लास कभी, आँसू बनकर बह चले अभी सब कहते ही रह गए, अरे तुम कैसे आए, कहाँ चले...
आज मानव का सुनहला प्रात है, आज विस्मृत का मृदुल आघात है; आज अलसित और मादकता-भरे, सुखद सपनों से शिथिल यह गात है;...
जब किलका को मादकता में हंस देने का वरदान मिला जब सरिता की उन बेसुध सी लहरों को कल कल गान मिला...
मैं कब से ढूँढ़ रहा हूँ अपने प्रकाश की रेखा तम के तट पर अंकित है निःसीम नियति का लेखा...
आज शाम है बहुत उदास केवल मैं हूँ अपने पास । दूर कहीं पर हास-विलास दूर कहीं उत्सव-उल्लास...
क्या जाग रही होगी तुम भी? निष्ठुर-सी आधी रात प्रिये! अपना यह व्यापक अंधकार, मेरे सूने-से मानस में, बरबस भर देतीं बार-बार; मेरी पीडाएँ एक-एक, हैं बदल रहीं करवटें विकल;...
तुम सुधि बन-बनकर बार-बार क्यों कर जाती हो प्यार मुझे? फिर विस्मृति बन तन्मयता का दे जाती हो उपहार मुझे।...
चरमर- चरमर- चूँ- चरर- मरर जा रही चली भैंसागाड़ी ! गति के पागलपन से प्रेरित चलती रहती संसृति महान; सागर पर चलते हैं जहाज , अंबर पर चलते वायुयान . भूतल के कोने-कोने में रेलों-ट्रामों का जाल बिछा ,...
मस्ती से भरके जबकि हवा सौरभ से बरबस उलझ पड़ी तब उलझ पड़ा मेरा सपना कुछ नये-नये अरमानों से;...
तुम अपनी हो, जग अपना है किसका किस पर अधिकार प्रिये फिर दुविधा का क्या काम यहाँ इस पार या कि उस पार प्रिये।...
मैं कब से ढूँढ़ रहा हूँ अपने प्रकाश की रेखा तम के तट पर अंकित है निःसीम नियति का लेखा...
जीवन-सरिता की लहर-लहर, मिटने को बनती यहाँ प्रिये संयोग क्षणिक, फिर क्या जाने हम कहाँ और तुम कहाँ प्रिये।...
कल सहसा यह सन्देश मिला सूने-से युग के बाद मुझे कुछ रोकर, कुछ क्रोधित हो कर तुम कर लेती हो याद मुझे।...
देखो, सोचो, समझो, सुनो, गुनो औ' जानो इसको, उसको, सम्भव हो निज को पहचानो लेकिन अपना चेहरा जैसा है रहने दो, जीवन की धारा में अपने को बहने दो...
बस इतना--अब चलना होगा फिर अपनी-अपनी राह हमें। कल ले आई थी खींच, आज ले चली खींचकर चाह हमें...
आज मानव का सुनहला प्रात है, आज विस्मृत का मृदुल आघात है; आज अलसित और मादकता-भरे, सुखद सपनों से शिथिल यह गात है;...
तुम मृगनयनी, तुम पिकबयनी तुम छवि की परिणीता-सी, अपनी बेसुध मादकता में भूली-सी, भयभीता सी।...