बसन्तोत्सव
मस्ती से भरके जबकि हवा सौरभ से बरबस उलझ पड़ी तब उलझ पड़ा मेरा सपना कुछ नये-नये अरमानों से; गेंदा फूला जब बागों में सरसों फूली जब खेतों में तब फूल उठी सहस उमंग मेरे मुरझाये प्राणों में; कलिका के चुम्बन की पुलकन मुखरित जब अलि के गुंजन में तब उमड़ पड़ा उन्माद प्रबल मेरे इन बेसुध गानों में; ले नई साध ले नया रंग मेरे आंगन आया बसंत मैं अनजाने ही आज बना हूँ अपने ही अनजाने में! जो बीत गया वह बिभ्रम था, वह था कुरूप, वह था कठोर, मत याद दिलाओ उस काल की, कल में असफलता रोती है! जब एक कुहासे-सी मेरी सांसें कुछ भारी-भारी थीं, दुख की वह धुंधली परछाँही अब तक आँखों में सोती है। है आज धूप में नई चमक मन में है नई उमंग आज जिससे मालूम यही दुनिया कुछ नई-नई सी होती है; है आस नई, अभिलास नई नवजीवन की रसधार नई अन्तर को आज भिगोती है! तुम नई स्फूर्ति इस तन को दो, तुम नई नई चेतना मन को दो, तुम नया ज्ञान जीवन को दो, ऋतुराज तुम्हारा अभिनन्दन!

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