पतझड़ के पीले पत्तों ने
पतझड़ के पीले पत्तों ने प्रिय देखा था मधुमास कभी; जो कहलाता है आज रुदन, वह कहलाया था हास कभी; आँखों के मोती बन-बनकर जो टूट चुके हैं अभी-अभी सच कहता हूँ, उन सपनों में भी था मुझको विश्वास कभी। आलोक दिया हँसकर प्रातः अस्ताचल पर के दिनकर ने; जल बरसाया था आज अनल बरसाने वाले अम्बर ने; जिसको सुनकर भय-शंका से भावुक जग उठता काँप यहाँ; सच कहता-हैं कितने रसमय संगीत रचे मेरे स्वर ने। तुम हो जाती हो सजल नयन लखकर यह पागलपन मेरा; मैं हँस देता हूँ यह कहकर "लो टूट चुका बन्धन मेरा!" ये ज्ञान और भ्रम की बातें- तुम क्या जानो, मैं क्या जानूँ ? है एक विवशता से प्रेरित जीवन सबका, जीवन मेरा ! कितने ही रस से भरे हृदय, कितने ही उन्मद-मदिर-नयन, संसृति ने बेसुध यहाँ रचे कितने ही कोमल आलिंगन; फिर एक अकेली तुम ही क्यों मेरे जीवन में भार बनीं ? जिसने तोड़ा प्रिय उसने ही था दिया प्रेम का यह बन्धन ! कब तुमने मेरे मानस में था स्पन्दन का संचार किया? कब मैंने प्राण तुम्हारा निज प्राणों से था अभिसार किया? हम-तुमको कोई और यहाँ ले आया-जाया करता है; मैं पूछ रहा हूँ आज अरे किसने कब किससे प्यार किया? जिस सागर से मधु निकला है, विष भी था उसके अन्तर में, प्राणों की व्याकुल हूक-भरी कोयल के उस पंचम स्वर में; जिसको जग मिटना कहता है, उसमें ही बनने का क्रम है; तुम क्या जानो कितना वैभव है मेरे इस उजड़े घर में ? मेरी आँखों की दो बूँदों में लहरें उठतीं लहर-लहर; मेरी सूनी-सी आहों में अम्बर उठता है मौन सिहर, निज में लय कर ब्रह्माण्ड निखिल मैं एकाकी बन चुका यहाँ, संसृति का युग बन चुका अरे मेरे वियोग का प्रथम प्रहर ! कल तक जो विवश तुम्हारा था, वह आज स्वयं हूँ मैं अपना; सीमा का बन्धन जो कि बना, मैं तोड़ चुका हूँ वह सपना; पैरों पर गति के अंगारे, सर पर जीवन की ज्वाला है; वह एक हँसी का खेल जिसे तुम रोकर कह देती 'तपना'। मैं बढ़ता जाता हूँ प्रतिपल, गति है नीचे गति है ऊपर; भ्रमती ही रहती है पृथ्वी, भ्रमता ही रहता है अम्बर ! इस भ्रम में भ्रमकर ही भ्रम के जग में मैंने पाया तुमको; जग नश्वर है, तुम नश्वर हो, बस मैं हूँ केवल एक अमर !

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