स्मृतिकण
क्या जाग रही होगी तुम भी? निष्ठुर-सी आधी रात प्रिये! अपना यह व्यापक अंधकार, मेरे सूने-से मानस में, बरबस भर देतीं बार-बार; मेरी पीडाएँ एक-एक, हैं बदल रहीं करवटें विकल; किस आशंका की विसुध आह! इन सपनों को कर गई पार मैं बेचैनी में तडप रहा; क्या जाग रही होगी तुम भी? अपने सुख-दुख से पीडित जग, निश्चिंत पडा है शयित-शांत, मैं अपने सुख-दुख को तुममें, हूँ ढूँढ रहा विक्षिप्त-भ्रांत; यदि एक साँस बन उड सकता, यदि हो सकता वैसा अदृश्य यदि सुमुखि तुम्हारे सिरहाने, मैं आ सकता आकुल अशांत पर नहीं, बँधा सीमाओं से, मैं सिसक रहा हूँ मौन विवश; मैं पूछ रहा हूँ बस इतना- भर कर नयनों में सजल याद, क्या जाग रही होगी तुम भी?

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