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यूँ कहने को राहें मुल्क-ए-वफ़ा की उजाल गया इक धुँद मिली जिस राह में पैक-ए-ख़याल गया फिर चाँद हमें किसी रात की गोद में डाल गया हम शहर में ठहरें, ऐसा तो जी का रोग नहीं...

दिल दर्द की शिद्दत से ख़ूँ-गश्ता ओ सी-पारा इस शहर में फिरता है इक वहशी-ओ-आवारा शायर है कि आशिक़ है, जोगी है कि बंजारा दरवाज़ा खुला रखना...

कब लौटा है बहता पानी बिछड़ा साजन रूठा दोस्त हम ने उस को अपना जाना जब तक हाथ में दामाँ था...

जल्वा-नुमाई बेपरवाई हाँ यही रीत जहाँ की है कब कोई लड़की मन का दरीचा खोल के बाहर झाँकी है...

चाँद कब से है सर-ए-शाख़-ए-सनोबर अटका घास शबनम में शराबोर है शब है आधी बाम सूना है, कहाँ ढूँडें किसी का चेहरा (लोग समझेंगे कि बे-रब्त हैं बातें अपनी)...

अर्श के तारे तोड़ के लाएँ काविश लोग हज़ार करें 'मीर' की बात कहाँ से पाएँ आख़िर को इक़रार करें आप इसे हुस्न-ए-तलब मत समझें ना कुछ और शुमार करें शेर इक 'मीर' फ़क़ीर का हम जो आप के गोश गुज़ार करें...

कल चौदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तिरा कुछ ने कहा ये चाँद है कुछ ने कहा चेहरा तिरा...

'इंशा'-जी उठो अब कूच करो इस शहर में जी को लगाना क्या वहशी को सुकूँ से क्या मतलब जोगी का नगर में ठिकाना क्या...

जब शहर के लोग न रस्ता दें क्यूँ बन में न जा बिसराम करे दीवानों की सी न बात करे तो और करे दीवाना क्या...

इस शहर में किस से मिलें हम से तो छूटीं महफ़िलें हर शख़्स तेरा नाम ले हर शख़्स दीवाना तिरा...

हुस्न सब को ख़ुदा नहीं देता हर किसी की नज़र नहीं होती...

हम किसी दर पे न ठिटके न कहीं दस्तक दी सैकड़ों दर थे मिरी जाँ तिरे दर से पहले...

गर्म आँसू और ठंडी आहें मन में क्या क्या मौसम हैं इस बग़िया के भेद न खोलो सैर करो ख़ामोश रहो...

एक दिन देखने को आ जाते ये हवस उम्र भर नहीं होती...

इक साल गया इक साल नया है आने को पर वक़्त का भी अब भी होश नहीं दीवाने को...

एक से एक जुनूँ का मारा इस बस्ती में रहता है एक हमीं हुशियार थे यारो एक हमीं बद-नाम हुए...

बे तेरे क्या वहशत हम को तुझ बिन कैसा सब्र ओ सुकूँ तू ही अपना शहर है जानी तू ही अपना सहरा है...

दीदा ओ दिल ने दर्द की अपने बात भी की तो किस से की वो तो दर्द का बानी ठहरा वो क्या दर्द बटाएगा...

वो रातें चाँद के साथ गईं वो बातें चाँद के साथ गईं अब सुख के सपने क्या देखें जब दुख का सूरज सर पर हो...

यूँही तो नहीं दश्त में पहुँचे यूँही तो नहीं जोग लिया बस्ती बस्ती काँटे देखे जंगल जंगल फूल मियाँ...

सुन तो लिया किसी नार की ख़ातिर काटा कोह निकाली नहर एक ज़रा से क़िस्से को अब देते क्यूँ हो तूल मियाँ...

वहशत-ए-दिल के ख़रीदार भी नापैद हुए कौन अब इश्क़ के बाज़ार में खोलेगा दुकाँ...

'मीर' से बैअत की है तो 'इंशा' मीर की बैअत भी है ज़रूर शाम को रो रो सुब्ह करो अब सुब्ह को रो रो शाम करो...

रात आ कर गुज़र भी जाती है इक हमारी सहर नहीं होती...

कूचे को तेरे छोड़ कर जोगी ही बन जाएँ मगर जंगल तिरे पर्बत तिरे बस्ती तिरी सहरा तिरा...

हम भूल सके हैं न तुझे भूल सकेंगे तू याद रहेगा हमें हाँ याद रहेगा...

राज़ कहाँ तक राज़ रहेगा मंज़र-ए-आम पे आएगा जी का दाग़ उजागर हो कर सूरज को शरमाएगा शहरों को वीरान करेगा अपनी आँच की तेज़ी से वीरानों में मस्त अलबेले वहशी फूल खिलाएगा...

जल्वा-नुमाई बेपरवाई हाँ यही रीत जहाँ की है कब कोई लड़की मन का दरीचा खोल के बाहर झाँकी है आज मगर इक नार को देखा जाने ये नार कहाँ की है मिस्र की मूरत चीन की गुड़िया देवी हिन्दोस्ताँ की है...

दिल हिज्र के दर्द से बोझल है अब आन मिलो तो बेहतर हो इस बात से हम को क्या मतलब ये कैसे हो ये क्यूँकर हो...

लब पर नाम किसी का भी हो, दिल में तेरा नक़्शा है ऐ तस्वीर बनाने वाली जब से तुझ को देखा है बे-तेरे क्या वहशत हम को, तुझ बिन कैसा सब्र ओ सुकूँ तू ही अपना शहर है जानी तू ही अपना सहरा है...

तुझ से जो मैं ने प्यार किया है तेरे लिए? नहीं अपने लिए वक़्त की बे-उनवान कहानी कब तक बे-उनवान रहे ऐ मिरे सोच-नगर की रानी ऐ मिरे ख़ुल्द-ए-ख़याल की हूर इतने दिनों जो मैं घुलता रहा हूँ तेरे बिना यूँही दूर ही दूर...

देख हमारे माथे पर ये दश्त-ए-तलब की धूल मियाँ हम से अजब तिरा दर्द का नाता देख हमें मत भूल मियाँ अहल-ए-वफ़ा से बात न करना होगा तिरा उसूल मियाँ हम क्यूँ छोड़ें उन गलियों के फेरों का मामूल मियाँ...

दिल पीत की आग में जलता है हाँ जलता रहे उसे जलने दो इस आग से लोगो दूर रहो ठंडी न करो पंखा न झलो हम रात दिना यूँ ही घुलते रहें कोई पूछे कि हम को ना पूछे कोई साजन हो या दुश्मन हो तुम ज़िक्र किसी का मत छेड़ो...

सब को दिल के दाग़ दिखाए एक तुझी को दिखा न सके तेरा दामन दूर नहीं था हाथ हमीं फैला न सके तू ऐ दोस्त कहाँ ले आया चेहरा ये ख़ुर्शीद मिसाल सीने में आबाद करेंगे आँखों में तो समा न सके...

कुछ कहने का वक़्त नहीं ये कुछ न कहो ख़ामोश रहो ऐ लोगो ख़ामोश रहो हाँ ऐ लोगो ख़ामोश रहो...

ऐ मतवालो नाक़ों वालो देते हो कुछ उस का पता नज्द के अंदर मजनूँ नामी एक हमारा भाई था आख़िर उस पर क्या कुछ बीती जानो तो अहवाल कहो मौत मिली या लैला पाई? दीवाने का मआल कहो...

बेकल बेकल रहते हो पर महफ़िल के आदाब के साथ आँख चुरा कर देख भी लेते भोले भी बन जाते हो...

हाँ देखा कल हम ने उस को देखने का जिसे अरमाँ था वो जो अपने शहर से आगे क़र्या-ए-बाग़-ओ-बहाराँ था सोच रहा हूँ जंग से पहले, झुलसी सी इस बस्ती में कैसा कैसा घर का मालिक, कैसा कैसा मेहमाँ था...

दिल किस के तसव्वुर में जाने रातों को परेशाँ होता है ये हुस्न-ए-तलब की बात नहीं होता है मिरी जाँ होता है हम तेरी सिखाई मंतिक़ से अपने को तो समझा लेते हैं इक ख़ार खटकता रहता है सीने में जो पिन्हाँ होता है...

कुछ कहने का वक़्त नहीं ये कुछ न कहो ख़ामोश रहो ऐ लोगो ख़ामोश रहो हाँ ऐ लोगो ख़ामोश रहो सच अच्छा पर उस के जिलौ में ज़हर का है इक प्याला भी पागल हो क्यूँ नाहक़ को सुक़रात बनो ख़ामोश रहो...