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आह जो दिल से निकाली जाएगी क्या समझते हो कि ख़ाली जाएगी...

नामा न कोई यार का पैग़ाम भेजिए इस फ़स्ल में जो भेजिए बस आम भेजिए ऐसा ज़रूर हो कि उन्हें रख के खा सकूँ पुख़्ता अगरचे बीस तो दस ख़ाम भेजिए...

हवा-ए-शब भी है अम्बर-अफ़्शाँ उरूज भी है मह-ए-मुबीं का निसार होने की दो इजाज़त महल नहीं है नहीं नहीं का अगर हो ज़ौक़-ए-सुजूद पैदा सितारा हो औज पर जबीं का निशान-ए-सज्दा ज़मीन पर हो तो फ़ख़्र है वो रुख़-ए-ज़मीं का...

इश्क़ के इज़हार में हर-चंद रुस्वाई तो है पर करूँ क्या अब तबीअत आप पर आई तो है...

आँखें मुझे तलवों से वो मलने नहीं देते अरमान मिरे दिल के निकलने नहीं देते ख़ातिर से तिरी याद को टलने नहीं देते सच है कि हमीं दिल को सँभलने नहीं देते...

हक़ीक़ी और मजाज़ी शायरी में फ़र्क़ ये पाया कि वो जामे से बाहर है ये पाजामे से बाहर है...

अगर मज़हब ख़लल-अंदाज़ है मुल्की मक़ासिद में तो शैख़ ओ बरहमन पिन्हाँ रहें दैर ओ मसाजिद में...

ख़ुशी क्या हो जो मेरी बात वो बुत मान जाता है मज़ा तो बेहद आता है मगर ईमान जाता है बनूँ कौंसिल में स्पीकर तो रुख़्सत क़िरअत-ए-मिस्री करूँ क्या मेम्बरी जाती है या क़ुरआन जाता है...

हर ज़र्रा चमकता है अनवार-ए-इलाही से हर साँस ये कहती है हम हैं तो ख़ुदा भी है...

इस क़दर था खटमलों का चारपाई में हुजूम वस्ल का दिल से मेरे अरमान रुख़्सत हो गया...

मिरा मोहताज होना तो मिरी हालत से ज़ाहिर है मगर हाँ देखना है आप का हाजत-रवा होना...

हम ऐसी कुल किताबें क़ाबिल-ए-ज़ब्ती समझते हैं कि जिन को पढ़ के लड़के बाप को ख़ब्ती समझते हैं...

दिल मिरा जिस से बहलता कोई ऐसा न मिला बुत के बंदे मिले अल्लाह का बंदा न मिला बज़्म-ए-याराँ से फिरी बाद-ए-बहारी मायूस एक सर भी उसे आमादा-ए-सौदा न मिला...

रहमान के फ़रिश्ते गो हैं बहुत मुक़द्दस शैतान ही की जानिब लेकिन मेजोरिटी है...

कहाँ वो अब लुत्फ़-ए-बाहमी है मोहब्बतों में बहुत कमी है चली है कैसी हवा इलाही कि हर तबीअत में बरहमी है मिरी वफ़ा में है क्या तज़लज़ुल मिरी इताअत में क्या कमी है ये क्यूँ निगाहें फिरी हैं मुझ से मिज़ाज में क्यूँ ये बरहमी है...

ये सुस्त है तो फिर क्या वो तेज़ है तो फिर क्या नेटिव जो है तो फिर क्या अंग्रेज़ है तो फिर क्या रहना किसी से दब कर है अम्न को ज़रूरी फिर कोई फ़िरक़ा हैबत-अंगेज़ है तो फिर क्या...

ख़ुदा अलीगढ़ की मदरसे को तमाम अमराज़ से शिफ़ा दे भरे हुए हैं रईस-ज़ादे अमीर-ज़ादे शरीफ़-ज़ादे लतीफ़ ओ ख़ुश-वज़्अ चुस्त-ओ-चालाक ओ साफ़-ओ-पाकीज़ा शाद-ओ-ख़ुर्रम तबीअतों में है उन की जौदत दिलों में उन के हैं नेक इरादे...

आशिक़ी का हो बुरा उस ने बिगाड़े सारे काम हम तो ए बी में रहे अग़्यार बी0ए0 हो गए...

अपने पहलू से वो ग़ैरों को उठा ही न सके उन को हम क़िस्सा-ए-ग़म अपना सुना ही न सके ज़ेहन मेरा वो क़यामत कि दो-आलम पे मुहीत आप ऐसे कि मिरे ज़ेहन में आ ही न सके...

न बहते अश्क तो तासीर में सिवा होते सदफ़ में रहते ये मोती तो बे-बहा होते मुझ ऐसे रिंद से रखते ज़रूर ही उल्फ़त जनाब-ए-शैख़ अगर आशिक़-ए-ख़ुदा होते...

हंगामा है क्यूँ बरपा थोड़ी सी जो पी ली है डाका तो नहीं मारा चोरी तो नहीं की है ना-तजरबा-कारी से वाइज़ की ये हैं बातें इस रंग को क्या जाने पूछो तो कभी पी है...

हर इक ये कहता है अब कार-ए-दीं तो कुछ भी नहीं ये सच भी है कि मज़ा बे-यक़ीं तो कुछ भी नहीं तमाम उम्र यहाँ ख़ाक उड़ा के देख लिया अब आसमान को देखूँ ज़मीं तो कुछ भी नहीं...

तय्यार थे नमाज़ पे हम सुन के ज़िक्र-ए-हूर जल्वा बुतों का देख के नीयत बदल गई...

नौकरों पर जो गुज़रती है मुझे मालूम है बस करम कीजे मुझे बेकार रहने दीजिए...

सिधारें शैख़ काबा को हम इंग्लिस्तान देखेंगे वो देखें घर ख़ुदा का हम ख़ुदा की शान देखेंगे...

कुछ इलाहाबाद में सामाँ नहीं बहबूद के याँ धरा क्या है ब-जुज़ अकबर के और अमरूद के...

ख़ुदा से माँग जो कुछ माँगना है ऐ 'अकबर' यही वो दर है कि ज़िल्लत नहीं सवाल के बा'द...

सदियों फ़िलासफ़ी की चुनाँ और चुनीं रही लेकिन ख़ुदा की बात जहाँ थी वहीं रही ज़ोर-आज़माइयाँ हुईं साइंस की भी ख़ूब ताक़त बढ़ी किसी की किसी में नहीं रही...

डिनर से तुम को फ़ुर्सत कम यहाँ फ़ाक़े से कम ख़ाली चलो बस हो चुका मिलना न तुम ख़ाली न हम ख़ाली...

एक काफ़िर पर तबीअत आ गई पारसाई पर भी आफ़त आ गई...

मय भी होटल में पियो चंदा भी दो मस्जिद में शैख़ भी ख़ुश रहें शैतान भी बे-ज़ार न हो...

वस्ल हो या फ़िराक़ हो 'अकबर' जागना रात भर मुसीबत है...

क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ...

किस नाज़ से कहते हैं वो झुँझला के शब-ए-वस्ल तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते...

बूट डासन ने बनाया मैं ने इक मज़मून लिखा मुल्क में मज़मूँ न फैला और जूता चल गया...

बताऊँ आप को मरने के बाद क्या होगा पोलाओ खाएँगे अहबाब फ़ातिहा होगा...

मैं भी ग्रेजुएट हूँ तुम भी ग्रेजुएट इल्मी मुबाहिसे हों ज़रा पास आ के लेट...

कॉलेज से आ रही है सदा पास पास की ओहदों से आ रही है सदा दूर दूर की...

रह-ओ-रस्म-ए-मोहब्बत इन हसीनों से मैं क्या रक्खूँ जहाँ तक देखता हूँ नफ़अ उन का है ज़रर अपना...

बहुत रहा है कभी लुत्फ़-ए-यार हम पर भी गुज़र चुकी है ये फ़स्ल-ए-बहार हम पर भी उरूस-ए-दहर को आया था प्यार हम पर भी ये बेसवा थी किसी शब निसार हम पर भी...