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सामने उस के कभी उस की सताइश नहीं की दिल ने चाहा भी अगर होंटों ने जुम्बिश नहीं की अहल-ए-महफ़िल पे कब अहवाल खुला है अपना मैं भी ख़ामोश रहा उस ने भी पुर्सिश नहीं की...

तेरी बातें ही सुनाने आए दोस्त भी दिल ही दुखाने आए फूल खिलते हैं तो हम सोचते हैं तेरे आने के ज़माने आए...

अब तो ये आरज़ू है कि वो ज़ख़्म खाइए ता-ज़िंदगी ये दिल न कोई आरज़ू करे...

ये कौन फिर से उन्हीं रास्तों में छोड़ गया अभी अभी तो अज़ाब-ए-सफ़र से निकला था...

सभी कहें मिरे ग़म-ख़्वार के अलावा भी कोई तो बात करूँ यार के अलावा भी बहुत से ऐसे सितमगर थे अब जो याद नहीं किसी हबीब-ए-दिल-आज़ार के अलावा भी...

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें...

ये तबीअत है तो ख़ुद आज़ार बन जाएँगे हम चारागर रोएँगे और ग़म-ख़्वार बन जाएँगे हम हम सर-ए-चाक-ए-वफ़ा हैं और तिरा दस्त-ए-हुनर जो बना देगा हमें ऐ यार बन जाएँगे हम...

जिस से ये तबीअत बड़ी मुश्किल से लगी थी देखा तो वो तस्वीर हर इक दिल से लगी थी...

कठिन है राहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो बहुत कड़ा है सफ़र थोड़ी दूर साथ चलो तमाम उम्र कहाँ कोई साथ देता है ये जानता हूँ मगर थोड़ी दूर साथ चलो...

न तेरा क़ुर्ब न बादा है क्या किया जाए फिर आज दुख भी ज़ियादा है क्या किया जाए हमें भी अर्ज़-ए-तमन्ना का ढब नहीं आता मिज़ाज-ए-यार भी सादा है क्या किया जाए...

अजब जुनून-ए-मसाफ़त में घर से निकला था ख़बर नहीं है कि सूरज किधर से निकला था ये कौन फिर से उन्हीं रास्तों में छोड़ गया अभी अभी तो अज़ाब-ए-सफ़र से निकला था...

साक़ी ये ख़मोशी भी तो कुछ ग़ौर-तलब है साक़ी तिरे मय-ख़्वार बड़ी देर से चुप हैं...

कब से सुनसान ख़राबों में पड़ा था ये जहाँ कब से ख़्वाबीदा थे इस वादी-ए-ख़ारा के सनम किस को मालूम ये सदियों के पुर-असरार भरम कौन जाने कि ये पत्थर भी कभी थे इंसाँ...

दिल का दुख जाना तो दिल का मसअला है पर हमें उस का हँस देना हमारे हाल पर अच्छा लगा...

जो ग़ैर थे वो इसी बात पर हमारे हुए कि हम से दोस्त बहुत बे-ख़बर हमारे हुए...

जुज़ तिरे कोई भी दिन रात न जाने मेरे तू कहाँ है मगर ऐ दोस्त पुराने मेरे...

चला था ज़िक्र ज़माने की बेवफ़ाई का सो आ गया है तुम्हारा ख़याल वैसे ही...

कौन ताक़ों पे रहा कौन सर-ए-राहगुज़र शहर के सारे चराग़ों को हवा जानती है...

तू इतनी दिल-ज़दा तो न थी ऐ शब-ए-फ़िराक़ आ तेरे रास्ते में सितारे लुटाएँ हम...

कल वॉशिंगटन शहर की हम ने सैर बहुत की यार गूँज रही थी सब दुनिया में जिस की जय-जय-कार मुल्कों मुल्कों हम घूमे थे बंजारों की मिस्ल लेकिन इस की सज-धज सच-मुच दिल-दारों की मिस्ल...

इक संग तराश जिस ने बरसों हीरों की तरह सनम तराशे आज अपने सनम-कदे में तन्हा मजबूर निढाल ज़ख़्म-ख़ुर्दा...

मिज़ाज हम से ज़ियादा जुदा न था उस का जब अपने तौर यही थे तो क्या गिला उस का वो अपने ज़ोम में था बे-ख़बर रहा मुझ से उसे गुमाँ भी नहीं मैं नहीं रहा उस का...

यूँ तो पहले भी हुए उस से कई बार जुदा लेकिन अब के नज़र आते हैं कुछ आसार जुदा गर ग़म-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ है तो ठहर जा ऐ जाँ कि इसी मोड़ पे यारों से हुए यार जुदा...

ऐसी तारीकियाँ आँखों में बसी हैं कि 'फ़राज़' रात तो रात है हम दिन को जलाते हैं चराग़...

शहर-वालों की मोहब्बत का मैं क़ाएल हूँ मगर मैं ने जिस हाथ को चूमा वही ख़ंजर निकला...

जी में जो आती है कर गुज़रो कहीं ऐसा न हो कल पशेमाँ हों कि क्यूँ दिल का कहा माना नहीं...

रोज़ जब धूप पहाड़ों से उतरने लगती कोई घटता हुआ बढ़ता हुआ बेकल साया एक दीवार से कहता कि मिरे साथ चलो और ज़ंजीर-ए-रिफ़ाक़त से गुरेज़ाँ दीवार...

जिस सम्त भी देखूँ नज़र आता है कि तुम हो ऐ जान-ए-जहाँ ये कोई तुम सा है कि तुम हो ये ख़्वाब है ख़ुशबू है कि झोंका है कि पल है ये धुँद है बादल है कि साया है कि तुम हो...

'फ़राज़' तर्क-ए-तअल्लुक़ तो ख़ैर क्या होगा यही बहुत है कि कम कम मिला करो उस से...

जिस्म शोअ'ला है जभी जामा-ए-सादा पहना मेरे सूरज ने भी बादल का लबादा पहना सिलवटें हैं मिरे चेहरे पे तो हैरत क्यूँ है ज़िंदगी ने मुझे कुछ तुम से ज़ियादा पहना...

दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभाने वाला वही अंदाज़ है ज़ालिम का ज़माने वाला...

अगरचे ज़ोर हवाओं ने डाल रक्खा है मगर चराग़ ने लौ को संभाल रक्खा है...

मैं ख़ुद को भूल चुका था मगर जहाँ वाले उदास छोड़ गए आईना दिखा के मुझे...

फ़क़ीह-ए-शहर की मज्लिस से कुछ भला न हुआ कि उस से मिल के मिज़ाज और काफ़िराना हुआ अभी अभी वो मिला था हज़ार बातें कीं अभी अभी वो गया है मगर ज़माना हुआ...

वो सामने हैं मगर तिश्नगी नहीं जाती ये क्या सितम है कि दरिया सराब जैसा है...

मैं ने देखा है बहारों में चमन को जलते है कोई ख़्वाब की ताबीर बताने वाला...

अगरचे ज़ोर हवाओं ने डाल रक्खा है मगर चराग़ ने लौ को संभाल रक्खा है मोहब्बतों में तो मिलना है या उजड़ जाना मिज़ाज-ए-इश्क़ में कब ए'तिदाल रक्खा है...

तेरी बातें ही सुनाने आए दोस्त भी दिल ही दुखाने आए...

दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभाने वाला वही अंदाज़ है ज़ालिम का ज़माने वाला अब उसे लोग समझते हैं गिरफ़्तार मिरा सख़्त नादिम है मुझे दाम में लाने वाला...

पहले पहले हवस इक-आध दुकाँ खोलती है फिर तो बाज़ार के बाज़ार से लग जाते हैं...