सामने उस के कभी उस की सताइश नहीं की दिल ने चाहा भी अगर होंटों ने जुम्बिश नहीं की अहल-ए-महफ़िल पे कब अहवाल खुला है अपना मैं भी ख़ामोश रहा उस ने भी पुर्सिश नहीं की...
तेरी बातें ही सुनाने आए दोस्त भी दिल ही दुखाने आए फूल खिलते हैं तो हम सोचते हैं तेरे आने के ज़माने आए...
सभी कहें मिरे ग़म-ख़्वार के अलावा भी कोई तो बात करूँ यार के अलावा भी बहुत से ऐसे सितमगर थे अब जो याद नहीं किसी हबीब-ए-दिल-आज़ार के अलावा भी...
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें...
ये तबीअत है तो ख़ुद आज़ार बन जाएँगे हम चारागर रोएँगे और ग़म-ख़्वार बन जाएँगे हम हम सर-ए-चाक-ए-वफ़ा हैं और तिरा दस्त-ए-हुनर जो बना देगा हमें ऐ यार बन जाएँगे हम...
कठिन है राहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो बहुत कड़ा है सफ़र थोड़ी दूर साथ चलो तमाम उम्र कहाँ कोई साथ देता है ये जानता हूँ मगर थोड़ी दूर साथ चलो...
न तेरा क़ुर्ब न बादा है क्या किया जाए फिर आज दुख भी ज़ियादा है क्या किया जाए हमें भी अर्ज़-ए-तमन्ना का ढब नहीं आता मिज़ाज-ए-यार भी सादा है क्या किया जाए...
अजब जुनून-ए-मसाफ़त में घर से निकला था ख़बर नहीं है कि सूरज किधर से निकला था ये कौन फिर से उन्हीं रास्तों में छोड़ गया अभी अभी तो अज़ाब-ए-सफ़र से निकला था...
कब से सुनसान ख़राबों में पड़ा था ये जहाँ कब से ख़्वाबीदा थे इस वादी-ए-ख़ारा के सनम किस को मालूम ये सदियों के पुर-असरार भरम कौन जाने कि ये पत्थर भी कभी थे इंसाँ...
कल वॉशिंगटन शहर की हम ने सैर बहुत की यार गूँज रही थी सब दुनिया में जिस की जय-जय-कार मुल्कों मुल्कों हम घूमे थे बंजारों की मिस्ल लेकिन इस की सज-धज सच-मुच दिल-दारों की मिस्ल...
इक संग तराश जिस ने बरसों हीरों की तरह सनम तराशे आज अपने सनम-कदे में तन्हा मजबूर निढाल ज़ख़्म-ख़ुर्दा...
मिज़ाज हम से ज़ियादा जुदा न था उस का जब अपने तौर यही थे तो क्या गिला उस का वो अपने ज़ोम में था बे-ख़बर रहा मुझ से उसे गुमाँ भी नहीं मैं नहीं रहा उस का...
यूँ तो पहले भी हुए उस से कई बार जुदा लेकिन अब के नज़र आते हैं कुछ आसार जुदा गर ग़म-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ है तो ठहर जा ऐ जाँ कि इसी मोड़ पे यारों से हुए यार जुदा...
रोज़ जब धूप पहाड़ों से उतरने लगती कोई घटता हुआ बढ़ता हुआ बेकल साया एक दीवार से कहता कि मिरे साथ चलो और ज़ंजीर-ए-रिफ़ाक़त से गुरेज़ाँ दीवार...
जिस सम्त भी देखूँ नज़र आता है कि तुम हो ऐ जान-ए-जहाँ ये कोई तुम सा है कि तुम हो ये ख़्वाब है ख़ुशबू है कि झोंका है कि पल है ये धुँद है बादल है कि साया है कि तुम हो...
जिस्म शोअ'ला है जभी जामा-ए-सादा पहना मेरे सूरज ने भी बादल का लबादा पहना सिलवटें हैं मिरे चेहरे पे तो हैरत क्यूँ है ज़िंदगी ने मुझे कुछ तुम से ज़ियादा पहना...
फ़क़ीह-ए-शहर की मज्लिस से कुछ भला न हुआ कि उस से मिल के मिज़ाज और काफ़िराना हुआ अभी अभी वो मिला था हज़ार बातें कीं अभी अभी वो गया है मगर ज़माना हुआ...
अगरचे ज़ोर हवाओं ने डाल रक्खा है मगर चराग़ ने लौ को संभाल रक्खा है मोहब्बतों में तो मिलना है या उजड़ जाना मिज़ाज-ए-इश्क़ में कब ए'तिदाल रक्खा है...
दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभाने वाला वही अंदाज़ है ज़ालिम का ज़माने वाला अब उसे लोग समझते हैं गिरफ़्तार मिरा सख़्त नादिम है मुझे दाम में लाने वाला...