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तुम से छुट कर भी तुम्हें भूलना आसान न था तुम को ही याद किया तुम को भुलाने के लिए...

अब ख़ुशी है न कोई दर्द रुलाने वाला हम ने अपना लिया हर रंग ज़माने वाला...

दो चार गाम राह को हमवार देखना फिर हर क़दम पे इक नई दीवार देखना आँखों की रौशनी से है हर संग आईना हर आइने में ख़ुद को गुनहगार देखना...

बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो चार किताबें पढ़ कर ये भी हम जैसे हो जाएँगे...

वो किसी एक मर्द के साथ ज़ियादा दिन नहीं रह सकती ये उस की कमज़ोरी नहीं सच्चाई है...

न जाने कौन सा मंज़र नज़र में रहता है तमाम उम्र मुसाफ़िर सफ़र में रहता है लड़ाई देखे हुए दुश्मनों से मुमकिन है मगर वो ख़ौफ़ जो दीवार ओ दर में रहता है...

देवता है कोई हम में न फ़रिश्ता कोई छू के मत देखना हर रंग उतर जाता है...

नीली पीली हरी गुलाबी मैं ने सब रंगीन नक़ाबें अपनी जेबों में भर ली हैं अब मेरा चेहरा नंगा है...

नींद पूरे बिस्तर में नहीं होती वो पलंग के एक कोने में दाएँ या बाएँ...

यक़ीन चाँद पे सूरज में ए'तिबार भी रख मगर निगाह में थोड़ा सा इंतिज़ार भी रख...

मुँह की बात सुने हर कोई दिल के दर्द को जाने कौन आवाज़ों के बाज़ारों में ख़ामोशी पहचाने कौन सदियों सदियों वही तमाशा रस्ता रस्ता लम्बी खोज लेकिन जब हम मिल जाते हैं खो जाता है जाने कौन...

हर तरफ़ हर जगह बे-शुमार आदमी फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी सुब्ह से शाम तक बोझ ढोता हुआ अपनी ही लाश का ख़ुद मज़ार आदमी...

ख़ुदा के हाथ में मत सौंप सारे कामों को बदलते वक़्त पे कुछ अपना इख़्तियार भी रख...

अब कहीं कोई नहीं जल गए सारे फ़रिश्तों के बदन बुझ गए नील-गगन टूटता चाँद बिखरता सूरज...

दिल में न हो जुरअत तो मोहब्बत नहीं मिलती ख़ैरात में इतनी बड़ी दौलत नहीं मिलती कुछ लोग यूँही शहर में हम से भी ख़फ़ा हैं हर एक से अपनी भी तबीअत नहीं मिलती...

अपना ग़म ले के कहीं और न जाया जाए घर में बिखरी हुई चीज़ों को सजाया जाए जिन चराग़ों को हवाओं का कोई ख़ौफ़ नहीं उन चराग़ों को हवाओं से बचाया जाए...

यही है ज़िंदगी कुछ ख़्वाब चंद उम्मीदें इन्हीं खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो...

अगर क़ब्रिस्तान में अलग अलग कत्बे न हों तो हर क़ब्र में एक ही ग़म सोया हुआ रहता है...

बड़े बड़े ग़म खड़े हुए थे रस्ता रोके राहों में छोटी छोटी ख़ुशियों से ही हम ने दिल को शाद किया...

जब भी किसी ने ख़ुद को सदा दी सन्नाटों में आग लगा दी मिट्टी उस की पानी उस का जैसी चाही शक्ल बना दी...

कुछ भी बचा न कहने को हर बात हो गई आओ कहीं शराब पिएँ रात हो गई फिर यूँ हुआ कि वक़्त का पाँसा पलट गया उम्मीद जीत की थी मगर मात हो गई...

मिरे कुर्ते की बूढ़ी जेब से कल तुम्हारी याद!! चुपके से निकल कर सड़क के शोर-ओ-गुल में खो गई है...

हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी जिस को भी देखना हो कई बार देखना...

बृन्दाबन के कृष्ण कन्हैय्या अल्लाह हू बंसी राधा गीता गैय्या अल्लाह हू...

उठ के कपड़े बदल घर से बाहर निकल जो हुआ सो हुआ रात के ब'अद दिन आज के ब'अद कल जो हुआ सो हुआ जब तलक साँस है भूक है प्यास है ये ही इतिहास है रख के काँधे पे हल खेत की ओर चल जो हुआ सो हुआ...

दिल में न हो जुरअत तो मोहब्बत नहीं मिलती ख़ैरात में इतनी बड़ी दौलत नहीं मिलती...

दवा की शीशी में सूरज उदास कमरे में चाँद उखड़ती साँसों में रह रह के...

उस को रुख़्सत तो किया था मुझे मालूम न था सारा घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला...

ज़रूरी क्या हर इक महफ़िल में बैठें तकल्लुफ़ की रवा-दारी से बचिए...

यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता मुझे गिरा के अगर तुम सँभल सको तो चलो...

वो एक ही चेहरा तो नहीं सारे जहाँ में जो दूर है वो दिल से उतर क्यूँ नहीं जाता...

कोशिश भी कर उमीद भी रख रास्ता भी चुन फिर इस के ब'अद थोड़ा मुक़द्दर तलाश कर...

बस यूँही जीते रहो कुछ न कहो सुब्ह जब सो के उठो घर के अफ़राद की गिनती कर लो...

तुम ने शायद किसी रिसाले में कोई अफ़्साना पढ़ लिया होगा खो गई होगी रूप की रानी...

बहुत से काम हैं लिपटी हुई धरती को फैला दें दरख़्तों को उगाएँ डालियों पे फूल महका दें...

नक़्शा उठा के कोई नया शहर ढूँढिए इस शहर में तो सब से मुलाक़ात हो गई...

कभी कभी यूँ भी हम ने अपने जी को बहलाया है जिन बातों को ख़ुद नहीं समझे औरों को समझाया है हम से पूछो इज़्ज़त वालों की इज़्ज़त का हाल कभी हम ने भी इक शहर में रह कर थोड़ा नाम कमाया है...

किसी भी शहर में जाओ कहीं क़याम करो कोई फ़ज़ा कोई मंज़र किसी के नाम करो दुआ सलाम ज़रूरी है शहर वालों से मगर अकेले में अपना भी एहतिराम करो...

किस से पूछूँ कि कहाँ गुम हूँ कई बरसों से हर जगह ढूँढता फिरता है मुझे घर मेरा...

न जाने कौन वो बहरूपिया है जो हर शब मिरी थकी हुई पलकों की सब्ज़ छाँव में तरह तरह के करिश्मे दिखाया करता है...