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गरज-बरस प्यासी धरती पर फिर पानी दे मौला चिड़ियों को दाने बच्चों को गुड़-धानी दे मौला दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहाँ होता है सोच समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला...

अपने लहजे की हिफ़ाज़त कीजिए शेर हो जाते हैं ना-मालूम भी...

मस्जिद का गुम्बद सूना है मंदिर की घंटी ख़ामोश जुज़दानों में लिपटे आदर्शों को दीमक कब की चाट चुकी है...

सूरज! इक नट-खट बालक-सा दिन भर शोर मचाए इधर उधर चिड़ियों को बिखेरे...

पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं...

दूर के चाँद को ढूँडो न किसी आँचल में ये उजाला नहीं आँगन में समाने वाला...

मैं अपने इख़्तियार में हूँ भी नहीं भी हूँ दुनिया के कारोबार में हूँ भी नहीं भी हूँ तेरी ही जुस्तुजू में लगा है कभी कभी मैं तेरे इंतिज़ार में हूँ भी नहीं भी हूँ...

हर एक बात को चुप-चाप क्यूँ सुना जाए कभी तो हौसला कर के नहीं कहा जाए तुम्हारा घर भी इसी शहर के हिसार में है लगी है आग कहाँ क्यूँ पता किया जाए...

सुना है मैं ने! कई दिन से तुम परेशाँ हो किसी ख़याल में हर वक़्त खोई रहती हो...

गोटे वाली लाल ओढ़नी उस पर चोली-घागरा...

घास पर खेलता है इक बच्चा पास माँ बैठी मुस्कुराती है मुझ को हैरत है जाने क्यूँ दुनिया काबा ओ सोमनात जाती है...

कुछ दिनों तो शहर सारा अजनबी सा हो गया फिर हुआ यूँ वो किसी की मैं किसी का हो गया इश्क़ कर के देखिए अपना तो ये है तजरबा घर मोहल्ला शहर सब पहले से अच्छा हो गया...

हर माँ अपनी कोख से अपना शौहर ही पैदा करती है मैं भी जब अपने कंधों पर...

कहता है कोई कुछ तो समझता है कोई कुछ लफ़्ज़ों से जुदा हो गए लफ़्ज़ों के मआनी...

तू इस तरह से मिरी ज़िंदगी में शामिल है जहाँ भी जाऊँ ये लगता है तेरी महफ़िल है हर एक रंग तिरे रूप की झलक ले ले कोई हँसी कोई लहजा कोई महक ले ले...

गिरजा में मंदिरों में अज़ानों में बट गया होते ही सुब्ह आदमी ख़ानों में बट गया...

सब कुछ तो है क्या ढूँढती रहती हैं निगाहें क्या बात है मैं वक़्त पे घर क्यूँ नहीं जाता...

बृन्दाबन के कृष्ण कन्हैय्या अल्लाह हू बंसी राधा गीता गैय्या अल्लाह हू थोड़े तिनके थोड़े दाने थोड़ा जल एक ही जैसी हर गौरय्या अल्लाह हू...

जितनी बुरी कही जाती है उतनी बुरी नहीं है दुनिया बच्चों के स्कूल में शायद तुम से मिली नहीं है दुनिया चार घरों के एक मोहल्ले के बाहर भी है आबादी जैसी तुम्हें दिखाई दी है सब की वही नहीं है दुनिया...

किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं तुम अपने आप को ख़ुद ही बदल सको तो चलो...

आनी जानी हर मोहब्बत है चलो यूँ ही सही जब तलक है ख़ूब-सूरत है चलो यूँ ही सही हम कहाँ के देवता हैं बेवफ़ा वो हैं तो क्या घर में कोई घर की ज़ीनत है चलो यूँ ही सही...

बे-नाम सा ये दर्द ठहर क्यूँ नहीं जाता जो बीत गया है वो गुज़र क्यूँ नहीं जाता सब कुछ तो है क्या ढूँढती रहती हैं निगाहें क्या बात है मैं वक़्त पे घर क्यूँ नहीं जाता...

अभी मरा नहीं ज़िंदा है आदमी शायद यहीं कहीं उसे ढूँडो यहीं कहीं होगा बदन की अंधी गुफा में छुपा हुआ होगा बढ़ा के हाथ...

बंद कमरा छटपटाता सा अंधेरा और दीवारों से टकराता हुआ...

जिसे देखते ही ख़ुमारी लगे उसे उम्र सारी हमारी लगे उजाला सा है उस के चारों तरफ़ वो नाज़ुक बदन पाँव भारी लगे...

हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा मैं ही कश्ती हूँ मुझी में है समुंदर मेरा किस से पूछूँ कि कहाँ गुम हूँ कई बरसों से हर जगह ढूँढता फिरता है मुझे घर मेरा...

न जाने कौन वो बहरूपिया है जो हर शब मिरी थकी हुई पलकों की सब्ज़ छाँव में तरह तरह के करिश्मे दिखाया करता है...

हर एक बात को चुप-चाप क्यूँ सुना जाए कभी तो हौसला कर के नहीं कहा जाए...

तू क़रीब आए तो क़ुर्बत का यूँ इज़हार करूँ आईना सामने रख कर तिरा दीदार करूँ सामने तेरे करूँ हार का अपनी एलान और अकेले में तिरी जीत से इंकार करूँ...

दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है मिल जाए तो मिट्टी है खो जाए तो सोना है...

किसी क़साई ने इक हड्डी छील कर फेंकी गली के मोड़ से दो कुत्ते भौंकते उठ्ठे...

सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं तुम अपने आप को ख़ुद ही बदल सको तो चलो...

पहले वो रंग थी फिर रूप बनी रूप से जिस्म में तब्दील हुई और फिर जिस्म से बिस्तर बन कर...

एक महफ़िल में कई महफ़िलें होती हैं शरीक जिस को भी पास से देखोगे अकेला होगा...

धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो ज़िंदगी क्या है किताबों को हटा कर देखो सिर्फ़ आँखों से ही दुनिया नहीं देखी जाती दिल की धड़कन को भी बीनाई बना कर देखो...

बेसन की सौंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ याद आती है! चौका बासन चिमटा फुकनी जैसी माँ बाँस की खर्री खाट के ऊपर हर आहट पर कान धरे आधी सोई आधी जागी थकी दो-पहरी जैसी माँ...

रुख़्सत होते वक़्त उस ने कुछ नहीं कहा लेकिन एयरपोर्ट पर अटैची खोलते हुए मैं ने देखा...

मुट्ठी भर लोगों के हाथों में लाखों की तक़दीरें हैं जुदा जुदा हैं धर्म इलाक़े एक सी लेकिन ज़ंजीरें हैं आज और कल की बात नहीं है सदियों की तारीख़ यही है हर आँगन में ख़्वाब हैं लेकिन चंद घरों में ताबीरें हैं...

आओ कहीं से थोड़ी सी मिट्टी भर लाएँ मिट्टी को बादल में गूँधें नए नए आकार बनाएँ...

ज़िहानतों को कहाँ कर्ब से फ़रार मिला जिसे निगाह मिली उस को इंतिज़ार मिला वो कोई राह का पत्थर हो या हसीं मंज़र जहाँ भी रास्ता ठहरा वहीं मज़ार मिला...