सुख़न मुश्ताक़ है आलम हमारा बहुत आलम करेगा ग़म हमारा पढ़ेंगे शेर रो रो लोग बैठे रहेगा देर तक मातम हमारा...
जीते-जी कूचा-ए-दिलदार से जाया न गया उस की दीवार का सर से मिरे साया न गया काव-कावे मिज़ा-ए-यार ओ दिल-ए-ज़ार-ओ-नज़ार गुथ गए ऐसे शिताबी कि छुड़ाया न गया...
शेर के पर्दे में मैं ने ग़म सुनाया है बहुत मरसिए ने दिल के मेरे भी रुलाया है बहुत बे-सबब आता नहीं अब दम-ब-दम आशिक़ को ग़श दर्द खींचा है निहायत रंज उठाया है बहुत...
यार ने हम से बे-अदाई की वस्ल की रात में लड़ाई की बाल-ओ-पर भी गए बहार के साथ अब तवक़्क़ो नहीं रिहाई की...
'मीर' दरिया है सुने शेर ज़बानी उस की अल्लाह अल्लाह रे तबीअत की रवानी उस की ख़ातिर-ए-बादिया से दैर में जावेगी कहीं ख़ाक मानिंद बगूले के उड़ानी उस की...
अमीरों तक रसाई हो चुकी बस मिरी बख़्त-आज़माई हो चुकी बस बहार अब के भी जो गुज़री क़फ़स में तो फिर अपनी रिहाई हो चुकी बस...
कल शब-ए-हिज्राँ थी लब पर नाला बीमाराना था शाम से ता सुब्ह दम-ए-बालीं पे सर यकजा न था शोहरा-ए-आलम उसे युम्न-ए-मोहब्बत ने किया वर्ना मजनूँ एक ख़ाक उफ़्तादा-ए-वीराना था...
जो तू ही सनम हम से बे-ज़ार होगा तो जीना हमें अपना दुश्वार होगा ग़म-ए-हिज्र रखेगा बे-ताब दिल को हमें कुढ़ते कुढ़ते कुछ आज़ार होगा...
दिल-ए-बेताब आफ़त है बला है जिगर सब खा गया अब क्या रहा है हमारा तो है अस्ल-ए-मुद्दआ तू ख़ुदा जाने तिरा क्या मुद्दआ है...
छाती जला करे है सोज़-ए-दरूँ बला है इक आग सी रहे है क्या जानिए कि क्या है मैं और तू हैं दोनों मजबूर-ए-तौर अपने पेशा तिरा जफ़ा है शेवा मिरा वफ़ा है...
'मीर' के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उन ने तो क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया...
फ़क़ीराना आए सदा कर चले कि म्याँ ख़ुश रहो हम दुआ कर चले जो तुझ बिन न जीने को कहते थे हम सो इस अहद को अब वफ़ा कर चले...
उस का ख़याल चश्म से शब ख़्वाब ले गया क़स्मे कि इश्क़ जी से मिरे ताब ले गया किन नींदों अब तू सोती है ऐ चश्म-ए-गिर्या-नाक मिज़्गाँ तो खोल शहर को सैलाब ले गया...
शिकवा करूँ मैं कब तक उस अपने मेहरबाँ का अल-क़िस्सा रफ़्ता रफ़्ता दुश्मन हुआ है जाँ का गिर्ये पे रंग आया क़ैद-ए-क़फ़स से शायद ख़ूँ हो गया जिगर में अब दाग़ गुलसिताँ का...
बनी थी कुछ इक उस से मुद्दत के बाद सो फिर बिगड़ी पहली ही सोहबत के बाद जुदाई के हालात मैं क्या कहूँ क़यामत थी एक एक साअत के बाद...
जिन के लिए अपने तो यूँ जान निकलते हैं इस राह में वे जैसे अंजान निकलते हैं क्या तीर-ए-सितम उस के सीने में भी टूटे थे जिस ज़ख़्म को चीरूँ हूँ पैकान निकलते हैं...