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सुख़न मुश्ताक़ है आलम हमारा बहुत आलम करेगा ग़म हमारा पढ़ेंगे शेर रो रो लोग बैठे रहेगा देर तक मातम हमारा...

दिल से रुख़्सत हुई कोई ख़्वाहिश गिर्या कुछ बे-सबब नहीं आता...

जीते-जी कूचा-ए-दिलदार से जाया न गया उस की दीवार का सर से मिरे साया न गया काव-कावे मिज़ा-ए-यार ओ दिल-ए-ज़ार-ओ-नज़ार गुथ गए ऐसे शिताबी कि छुड़ाया न गया...

शेर के पर्दे में मैं ने ग़म सुनाया है बहुत मरसिए ने दिल के मेरे भी रुलाया है बहुत बे-सबब आता नहीं अब दम-ब-दम आशिक़ को ग़श दर्द खींचा है निहायत रंज उठाया है बहुत...

चश्म हो तो आईना-ख़ाना है दहर मुँह नज़र आता है दीवारों के बीच...

यार ने हम से बे-अदाई की वस्ल की रात में लड़ाई की बाल-ओ-पर भी गए बहार के साथ अब तवक़्क़ो नहीं रिहाई की...

दिल मुझे उस गली में ले जा कर और भी ख़ाक में मिला लाया...

मसाइब और थे पर दिल का जाना अजब इक सानेहा सा हो गया है...

नाज़ुक-मिज़ाज आप क़यामत हैं 'मीर' जी जूँ शीशा मेरे मुँह न लगो मैं नशे में हूँ...

'मीर' दरिया है सुने शेर ज़बानी उस की अल्लाह अल्लाह रे तबीअत की रवानी उस की ख़ातिर-ए-बादिया से दैर में जावेगी कहीं ख़ाक मानिंद बगूले के उड़ानी उस की...

अमीरों तक रसाई हो चुकी बस मिरी बख़्त-आज़माई हो चुकी बस बहार अब के भी जो गुज़री क़फ़स में तो फिर अपनी रिहाई हो चुकी बस...

राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या आगे आगे देखिए होता है क्या...

कल शब-ए-हिज्राँ थी लब पर नाला बीमाराना था शाम से ता सुब्ह दम-ए-बालीं पे सर यकजा न था शोहरा-ए-आलम उसे युम्न-ए-मोहब्बत ने किया वर्ना मजनूँ एक ख़ाक उफ़्तादा-ए-वीराना था...

जो तू ही सनम हम से बे-ज़ार होगा तो जीना हमें अपना दुश्वार होगा ग़म-ए-हिज्र रखेगा बे-ताब दिल को हमें कुढ़ते कुढ़ते कुछ आज़ार होगा...

दिल-ए-बेताब आफ़त है बला है जिगर सब खा गया अब क्या रहा है हमारा तो है अस्ल-ए-मुद्दआ तू ख़ुदा जाने तिरा क्या मुद्दआ है...

छाती जला करे है सोज़-ए-दरूँ बला है इक आग सी रहे है क्या जानिए कि क्या है मैं और तू हैं दोनों मजबूर-ए-तौर अपने पेशा तिरा जफ़ा है शेवा मिरा वफ़ा है...

क्या कहूँ तुम से मैं कि क्या है इश्क़ जान का रोग है बला है इश्क़...

उम्र गुज़री दवाएँ करते 'मीर' दर्द-ए-दिल का हुआ न चारा हनूज़...

अब जो इक हसरत-ए-जवानी है उम्र-ए-रफ़्ता की ये निशानी है...

था मुस्तआर हुस्न से उस के जो नूर था ख़ुर्शीद में भी उस ही का ज़र्रा ज़ुहूर था...

'मीर' के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उन ने तो क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया...

कहा मैं ने गुल का है कितना सबात कली ने ये सुन कर तबस्सुम किया...

फ़क़ीराना आए सदा कर चले कि म्याँ ख़ुश रहो हम दुआ कर चले जो तुझ बिन न जीने को कहते थे हम सो इस अहद को अब वफ़ा कर चले...

उस का ख़याल चश्म से शब ख़्वाब ले गया क़स्मे कि इश्क़ जी से मिरे ताब ले गया किन नींदों अब तू सोती है ऐ चश्म-ए-गिर्या-नाक मिज़्गाँ तो खोल शहर को सैलाब ले गया...

काबे में जाँ-ब-लब थे हम दूरी-ए-बुताँ से आए हैं फिर के यारो अब के ख़ुदा के हाँ से...

दिल्ली के न थे कूचे औराक़-ए-मुसव्वर थे जो शक्ल नज़र आई तस्वीर नज़र आई...

बाल-ओ-पर भी गए बहार के साथ अब तवक़्क़ो नहीं रिहाई की...

'मीर'-जी ज़र्द होते जाते हो क्या कहीं तुम ने भी किया है इश्क़...

परस्तिश की याँ तक कि ऐ बुत तुझे नज़र में सभों की ख़ुदा कर चले...

उस के ईफ़ा-ए-अहद तक न जिए उम्र ने हम से बेवफ़ाई की...

बेवफ़ाई पे तेरी जी है फ़िदा क़हर होता जो बा-वफ़ा होता...

शिकवा करूँ मैं कब तक उस अपने मेहरबाँ का अल-क़िस्सा रफ़्ता रफ़्ता दुश्मन हुआ है जाँ का गिर्ये पे रंग आया क़ैद-ए-क़फ़स से शायद ख़ूँ हो गया जिगर में अब दाग़ गुलसिताँ का...

सब पे जिस बार ने गिरानी की उस को ये ना-तवाँ उठा लाया...

शेर मेरे हैं गो ख़वास-पसंद पर मुझे गुफ़्तुगू अवाम से है...

उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया...

इक़रार में कहाँ है इंकार की सी सूरत होता है शौक़ ग़ालिब उस की नहीं नहीं पर...

कुछ करो फ़िक्र मुझ दीवाने की धूम है फिर बहार आने की...

बनी थी कुछ इक उस से मुद्दत के बाद सो फिर बिगड़ी पहली ही सोहबत के बाद जुदाई के हालात मैं क्या कहूँ क़यामत थी एक एक साअत के बाद...

कासा-ए-चश्म ले के जूँ नर्गिस हम ने दीदार की गदाई की...

जिन के लिए अपने तो यूँ जान निकलते हैं इस राह में वे जैसे अंजान निकलते हैं क्या तीर-ए-सितम उस के सीने में भी टूटे थे जिस ज़ख़्म को चीरूँ हूँ पैकान निकलते हैं...