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वो बात सारे फ़साने में जिस का ज़िक्र न था वो बात उन को बहुत ना-गवार गुज़री है...

याद का फिर कोई दरवाज़ा खुला आख़िर-ए-शब दिल में बिखरी कोई ख़ुशबू-ए-क़बा आख़िर-ए-शब सुब्ह फूटी तो वो पहलू से उठा आख़िर-ए-शब वो जो इक उम्र से आया न गया आख़िर-ए-शब...

मिरा दर्द नग़मा-ए-बे-सदा मिरी ज़ात ज़र्रा-ए-बे-निशाँ मेरे दर्द को जो ज़बाँ मिले मुझे अपना नाम-ओ-निशाँ मिले...

मत रो बच्चे रो रो के अभी तेरी अम्मी की आँख लगी है मत रो बच्चे...

इक ज़रा सोचने दो इस ख़याबाँ में जो इस लहज़ा बयाबाँ भी नहीं कौन सी शाख़ में फूल आए थे सब से पहले...

एक अफ़्सुर्दा शाह-राह है दराज़ दूर उफ़ुक़ पर नज़र जमाए हुए सर्द मिट्टी पे अपने सीने के सुर्मगीं हुस्न को बिछाए हुए...

चंद रोज़ और मिरी जान फ़क़त चंद ही रोज़ ज़ुल्म की छाँव में दम लेने पे मजबूर हैं हम और कुछ देर सितम सह लें तड़प लें रो लें अपने अज्दाद की मीरास है माज़ूर हैं हम...

सहल यूँ राह ज़िंदगी की है हर क़दम हम ने आशिक़ी की है हम ने दिल में सजा लिए गुलशन जब बहारों ने बे-रुख़ी की है...

शैख़ साहब से रस्म-ओ-राह न की शुक्र है ज़िंदगी तबाह न की तुझ को देखा तो सैर चश्म हुए तुझ को चाहा तो और चाह न की...

अब के बरस दस्तूर-ए-सितम में क्या क्या बाब ईज़ाद हुए जो क़ातिल थे मक़्तूल हुए जो सैद थे अब सय्याद हुए पहले भी ख़िज़ाँ में बाग़ उजड़े पर यूँ नहीं जैसे अब के बरस सारे बूटे पत्ता पत्ता रविश रविश बर्बाद हुए...

जैसे हम-बज़्म हैं फिर यार-ए-तरह-दार से हम रात मिलते रहे अपने दर-ओ-दीवार से हम सरख़ुशी में यूँही दिल-शाद ओ ग़ज़ल-ख़्वाँ गुज़रे कू-ए-क़ातिल से कभी कूचा-ए-दिलदार से हम...

ये किस ख़लिश ने फिर इस दिल में आशियाना किया फिर आज किस ने सुख़न हम से ग़ाएबाना किया ग़म-ए-जहाँ हो रुख़-ए-यार हो कि दस्त-ए-अदू सुलूक जिस से किया हम ने आशिक़ाना किया...

जो नफ़स था ख़ार-ए-गुलू बना जो उठे थे हाथ लहू हुए वो नशात-ए-आह-ए-सहर गई वो वक़ार-ए-दस्त-ए-दुआ गया...

तूफ़ाँ ब-दिल है हर कोई दिलदार देखना गुल हो न जाए मिशअल-ए-रुख़्सार देखना आतिश ब-जाँ है हर कोई सरकार देखना लौ दे उठे न तुर्रा-ए-तर्रार देखना...

हर सम्त परेशाँ तिरी आमद के क़रीने धोके दिए क्या क्या हमें बाद-ए-सहरी ने हर मंजिल-ए-ग़ुरबत पे गुमाँ होता है घर का बहलाया है हर गाम बहुत दर-ब-दरी ने...

उट्ठो अब माटी से उट्ठो जागो मेरे लाल अब जागो मेरे लाल तुमरी सेज जवान कारन...

आज के दिन न पूछो मिरे दोस्तो दूर कितने हैं ख़ुशियाँ मनाने के दिन खुल के हँसने के दिन गीत गाने के दिन प्यार करने के दिन दिल लगाने के दिन...

कई बार इस का दामन भर दिया हुस्न-ए-दो-आलम से मगर दिल है कि इस की ख़ाना-वीरानी नहीं जाती कई बार इस की ख़ातिर ज़र्रे ज़र्रे का जिगर चेरा मगर ये चश्म-ए-हैराँ जिस की हैरानी नहीं जाती...

न अब हम साथ सैर-ए-गुल करेंगे न अब मिल कर सर-ए-मक़्तल चलेंगे हदीस-ए-दिल-बराँ बाहम करेंगे न ख़ून-ए-दिल से शरह-ए-ग़म करेंगे...

मर जाएँगे ज़ालिम की हिमायत न करेंगे अहरार कभी तर्क-ए-रिवायत न करेंगे क्या कुछ न मिला है जो कभी तुझ से मिलेगा अब तेरे न मिलने की शिकायत न करेंगे...

शाख़ पर ख़ून-ए-गुल रवाँ है वही शोख़ी-ए-रंग-ए-गुलिस्ताँ है वही सर वही है तो आस्ताँ है वही जाँ वही है तो जान-ए-जाँ है वही...

न गँवाओ नावक-ए-नीम-कश दिल-ए-रेज़ा-रेज़ा गँवा दिया जो बचे हैं संग समेट लो तन-ए-दाग़-दाग़ लुटा दिया मिरे चारागर को नवेद हो सफ़-ए-दुश्मनाँ को ख़बर करो जो वो क़र्ज़ रखते थे जान पर वो हिसाब आज चुका दिया...

कू-ए-सितम की ख़ामुशी आबाद कुछ तो हो कुछ तो कहो सितम-कशे फ़रियाद कुछ तो हो बेदाद-गर से शिकवा-ए-बेदाद कुछ तो हो बोलो कि शोर-ए-हश्र की ईजाद कुछ तो हो...

दरबार में अब सतवत-ए-शाही की अलामत दरबाँ का असा है कि मुसन्निफ़ का क़लम है आवारा है फिर कोह-ए-निदा पर जो बशारत तम्हीद-ए-मसर्रत है कि तूल-ए-शब-ए-ग़म है...

शरह-ए-फ़िराक़ मदह-ए-लब-ए-मुश्कबू करें ग़ुर्बत-कदे में किस से तिरी गुफ़्तुगू करें यार आश्ना नहीं कोई टकराएँ किस से जाम किस दिल-रुबा के नाम पे ख़ाली सुबू करें...

गड़ी हैं कितनी सलीबें मिरे दरीचे में हर एक अपने मसीहा के ख़ूँ का रंग लिए हर एक वस्ल-ए-ख़ुदा-वंद की उमंग लिए किसी पे करते हैं अब्र-ए-बहार को क़ुर्बां...

वो आ रहे हैं वो आते हैं आ रहे होंगे शब-ए-फ़िराक़ ये कह कर गुज़ार दी हम ने...

जानता है कि वो न आएँगे फिर भी मसरूफ़-ए-इंतिज़ार है दिल...

मेरी ख़ामोशियों में लर्ज़ां है मेरे नालों की गुम-शुदा आवाज़...

रात बाक़ी थी अभी जब सर-ए-बालीं आ कर चाँद ने मुझ से कहा 'जाग सहर आई है जाग इस शब जो मय-ए-ख़्वाब तिरा हिस्सा थी जाम के लब से तह-ए-जाम उतर आई है'...

इस हवस में कि पुकारे जरस-ए-गुल की सदा दश्त-ओ-सहरा में सबा फिरती है यूँ आवारा जिस तरह फिरते हैं हम अहल-ए-जुनूँ आवारा हम पे वारफ़्तगी-ए-होश की तोहमत न धरो...

तुझे पुकारा है बे-इरादा जो दिल दुखा है बहुत ज़ियादा नदीम हो तेरा हर्फ़-ए-शीरीं तो रंग पर आए रंग-ए-बादा...

नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तुजू ही सही नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही न तन में ख़ून फ़राहम न अश्क आँखों में नमाज़-ए-शौक़ तो वाजिब है बे-वज़ू ही सही...

तुम ये कहते हो वो जंग हो भी चुकी! जिस में रक्खा नहीं है किसी ने क़दम कोई उतरा न मैदाँ में दुश्मन न हम कोई सफ़ बन न पाई, न कोई अलम...

ना-गहाँ आज मिरे तार-ए-नज़र से कट कर टुकड़े टुकड़े हुए आफ़ाक़ पे ख़ुर्शीद ओ क़मर अब किसी सम्त अंधेरा न उजाला होगा बुझ गई दिल की तरह राह-ए-वफ़ा मेरे बाद...

ये धूप किनारा शाम ढले मिलते हैं दोनों वक़्त जहाँ जो रात न दिन जो आज न कल पल-भर को अमर पल भर में धुआँ...

इक तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल है सो वो उन को मुबारक इक अर्ज़-ए-तमन्ना है सो हम करते रहेंगे...

फिर लौटा है ख़ुर्शीद-ए-जहाँ-ताब सफ़र से फिर नूर-ए-सहर दस्त-ओ-गरेबाँ है सहर से फिर आग भड़कने लगी हर साज़-ए-तरब में फिर शोले लपकने लगे हर दीदा-ए-तर से...

आइए हाथ उठाएँ हम भी हम जिन्हें रस्म-ए-दुआ याद नहीं हम जिन्हें सोज़-ए-मोहब्बत के सिवा कोई बुत कई ख़ुदा याद नहीं...

रंग पैराहन का ख़ुशबू ज़ुल्फ़ लहराने का नाम मौसम-ए-गुल है तुम्हारे बाम पर आने का नाम दोस्तो उस चश्म ओ लब की कुछ कहो जिस के बग़ैर गुलसिताँ की बात रंगीं है न मय-ख़ाने का नाम...