जरस-ए-गुल की सदा
इस हवस में कि पुकारे जरस-ए-गुल की सदा दश्त-ओ-सहरा में सबा फिरती है यूँ आवारा जिस तरह फिरते हैं हम अहल-ए-जुनूँ आवारा हम पे वारफ़्तगी-ए-होश की तोहमत न धरो हम कि रुम्माज़-ए-रुमूज़-ए-ग़म-ए-पिन्हानी हैं अपनी गर्दन पे भी है रिश्ता-फ़गन ख़ातिर-ए-दोस्त हम भी शौक़-ए-रह-ए-दिलदार के ज़िंदानी हैं जब भी अबरू-ए-दर-ए-यार ने इरशाद किया जिस बयाबाँ में भी हम होंगे चले आएँगे दर खुला देखा तो शायद तुम्हें फिर देख सकें बंद होगा तो सदा दे के चले जाएँगे

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