शाह-राह
एक अफ़्सुर्दा शाह-राह है दराज़ दूर उफ़ुक़ पर नज़र जमाए हुए सर्द मिट्टी पे अपने सीने के सुर्मगीं हुस्न को बिछाए हुए जिस तरह कोई ग़म-ज़दा औरत अपने वीराँ-कदे में मह्व-ए-ख़याल वस्ल-ए-महबूब के तसव्वुर में मू-ब-मू चूर उज़्व उज़्व निढाल

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