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तू दोस्त किसू का भी सितमगर न हुआ था औरों पे है वो ज़ुल्म कि मुझ पर न हुआ था छोड़ा मह-ए-नख़शब की तरह दस्त-ए-क़ज़ा ने ख़ुर्शीद हुनूज़ उस के बराबर न हुआ था...

मुझ को दयार-ए-ग़ैर में मारा वतन से दूर रख ली मिरे ख़ुदा ने मिरी बेकसी की शर्म वो हल्क़ा-हा-ए-ज़ुल्फ़ कमीं में हैं या ख़ुदा रख लीजो मेरे दावा-ए-वारस्तगी की शर्म...

हुस्न-ए-बे-परवा ख़रीदार-ए-माता-ए-जल्वा है आइना ज़ानू-ए-फ़िक्र-ए-इख़्तिरा-ए-जल्वा है ता-कुजा ऐ आगही रंग-ए-तमाशा बाख़्तन चश्म-ए-वा-गर्दीदा आग़ोश-ए-विदा-ए-जल्वा है...

ज़िंदगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री 'ग़ालिब' हम भी क्या याद करेंगे कि ख़ुदा रखते थे...

ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना बन गया रक़ीब आख़िर था जो राज़-दाँ अपना...

ज़िंदगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री 'ग़ालिब' हम भी क्या याद करेंगे कि ख़ुदा रखते थे...

फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया दिल जिगर तिश्ना-ए-फ़रियाद आया दम लिया था न क़यामत ने हनूज़ फिर तिरा वक़्त-ए-सफ़र याद आया...

सादगी पर उस की मर जाने की हसरत दिल में है बस नहीं चलता कि फिर ख़ंजर कफ़-ए-क़ातिल में है देखना तक़रीर की लज़्ज़त कि जो उस ने कहा मैं ने ये जाना कि गोया ये भी मेरे दिल में है...

जी ढूँडता है फिर वही फ़ुर्सत कि रात दिन बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानाँ किए हुए...

जादा-ए-रह ख़ुर को वक़्त-ए-शाम है तार-ए-शुआअ' चर्ख़ वा करता है माह-ए-नौ से आग़ोश-ए-विदा'अ शम्अ' से है बज़्म-ए-अंगुश्त-ए-तहय्युर दर दहन शोला-ए-आवाज़-ए-ख़ूबाँ पर ब-हंगाम-ए-सिमाअ'...

हुई ताख़ीर तो कुछ बाइस-ए-ताख़ीर भी था आप आते थे मगर कोई इनाँ-गीर भी था तुम से बेजा है मुझे अपनी तबाही का गिला उस में कुछ शाइब-ए-ख़ूबी-ए-तक़दीर भी था...

आ ही जाता वो राह पर 'ग़ालिब' कोई दिन और भी जिए होते...

ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता तिरे वादे पर जिए हम तो ये जान झूट जाना कि ख़ुशी से मर न जाते अगर ए'तिबार होता...

जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की लिख दीजियो या रब उसे क़िस्मत में अदू की...

फ़ाएदा क्या सोच आख़िर तू भी दाना है 'असद' दोस्ती नादाँ की है जी का ज़ियाँ हो जाएगा...

वो मिरी चीन-ए-जबीं से ग़म-ए-पिन्हाँ समझा राज़-ए-मक्तूब ब-बे-रब्ती-ए-उनवाँ समझा यक अलिफ़ बेश नहीं सैक़ल-ए-आईना हनूज़ चाक करता हूँ मैं जब से कि गरेबाँ समझा...

शेर 'ग़ालिब' का नहीं वही ये तस्लीम मगर ब-ख़ुदा तुम ही बता दो नहीं लगता इल्हाम...

सीखे हैं मह-रुख़ों के लिए हम मुसव्वरी तक़रीब कुछ तो बहर-ए-मुलाक़ात चाहिए...

पुर हूँ मैं शिकवे से यूँ राग से जैसे बाजा इक ज़रा छेड़िए फिर देखिए क्या होता है...

बे-इश्क़ उम्र कट नहीं सकती है और याँ ताक़त ब-क़दर-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार भी नहीं...

चाहिए अच्छों को जितना चाहिए ये अगर चाहें तो फिर क्या चाहिए सोहबत-ए-रिंदाँ से वाजिब है हज़र जा-ए-मय अपने को खींचा चाहिए...

दश्ना-ए-ग़म्ज़ा जाँ-सिताँ नावक-ए-नाज़ बे-पनाह तेरा ही अक्स-ए-रुख़ सही सामने तेरे आए क्यूँ...

गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है रहने दो अभी साग़र-ओ-मीना मिरे आगे...

क़ैद-ए-हयात ओ बंद-ए-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं मौत से पहले आदमी ग़म से नजात पाए क्यूँ...

न होगा यक-बयाबाँ माँदगी से ज़ौक़ कम मेरा हबाब-ए-मौजा-ए-रफ़्तार है नक़्श-ए-क़दम मेरा मोहब्बत थी चमन से लेकिन अब ये बे-दिमाग़ी है कि मौज-ए-बू-ए-गुल से नाक में आता है दम मेरा...

हम पर जफ़ा से तर्क-ए-वफ़ा का गुमाँ नहीं इक छेड़ है वगरना मुराद इम्तिहाँ नहीं किस मुँह से शुक्र कीजिए इस लुत्फ़-ए-ख़ास का पुर्सिश है और पा-ए-सुख़न दरमियाँ नहीं...

ख़ूब था पहले से होते जो हम अपने बद-ख़्वाह कि भला चाहते हैं और बुरा होता है...

गर किया नासेह ने हम को क़ैद अच्छा यूँ सही ये जुनून-ए-इश्क़ के अंदाज़ छुट जावेंगे क्या...

दोस्त ग़म-ख़्वारी में मेरी सई फ़रमावेंगे क्या ज़ख़्म के भरते तलक नाख़ुन न बढ़ जावेंगे क्या बे-नियाज़ी हद से गुज़री बंदा-परवर कब तलक हम कहेंगे हाल-ए-दिल और आप फ़रमावेंगे क्या...

याद है शादी में भी हंगामा-ए-या-रब मुझे सुब्हा-ए-ज़ाहिद हुआ है ख़ंदा ज़ेर-ए-लब मुझे है कुशाद-ए-ख़ातिर-ए-वा-बस्ता दर रहन-ए-सुख़न था तिलिस्म-ए-क़ुफ़्ल-ए-अबजद ख़ाना-ए-मकतब मुझे...

मरते हैं आरज़ू में मरने की मौत आती है पर नहीं आती...

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या है...

आ कि मिरी जान को क़रार नहीं है ताक़त-ए-बेदाद-ए-इंतिज़ार नहीं है देते हैं जन्नत हयात-ए-दहर के बदले नश्शा ब-अंदाज़ा-ए-ख़ुमार नहीं है...

है गै़ब-ए-ग़ैब जिस को समझते हैं हम शुहूद हैं ख़्वाब में हुनूज़ जो जागे हैं ख़्वाब में...

गर्म-ए-फ़रियाद रखा शक्ल-ए-निहाली ने मुझे तब अमाँ हिज्र में दी बर्द-ए-लयाली ने मुझे निस्यह-ओ-नक़्द-ए-दो-आलम की हक़ीक़त मालूम ले लिया मुझ से मिरी हिम्मत-ए-आली ने मुझे...

मिरी हस्ती फ़ज़ा-ए-हैरत आबाद-ए-तमन्ना है जिसे कहते हैं नाला वो उसी आलम का अन्क़ा है ख़िज़ाँ क्या फ़स्ल-ए-गुल कहते हैं किस को कोई मौसम हो वही हम हैं क़फ़स है और मातम बाल-ओ-पर का है...

तू ने क़सम मय-कशी की खाई है 'ग़ालिब' तेरी क़सम का कुछ ए'तिबार नहीं है...

लेता नहीं मिरे दिल-ए-आवारा की ख़बर अब तक वो जानता है कि मेरे ही पास है...

जल्वे का तेरे वो आलम है कि गर कीजे ख़याल दीदा-ए-दिल को ज़ियारत-गाह-ए-हैरानी करे...

परतव-ए-ख़ुर से है शबनम को फ़ना की तालीम मैं भी हूँ एक इनायत की नज़र होते तक...