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है सब्ज़ा-ज़ार हर दर-ओ-दीवार-ए-ग़म-कदा जिस की बहार ये हो फिर उस की ख़िज़ाँ न पूछ नाचार बेकसी की भी हसरत उठाइए दुश्वारी-ए-रह ओ सितम-ए-हम-रहाँ न पूछ...

मैं उन्हें छेड़ूँ और वो कुछ न कहें चल निकलते जो मय पिए होते क़हर हो या बला हो जो कुछ हो काश के तुम मिरे लिए होते...

'ग़ालिब' बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे...

तुम जानो तुम को ग़ैर से जो रस्म-ओ-राह हो मुझ को भी पूछते रहो तो क्या गुनाह हो बचते नहीं मुवाख़ज़ा-ए-रोज़-ए-हश्र से क़ातिल अगर रक़ीब है तो तुम गवाह हो...

ग़म अगरचे जाँ-गुसिल है प कहाँ बचें कि दिल है ग़म-ए-इश्क़ गर न होता ग़म-ए-रोज़गार होता...

सुनते हैं जो बहिश्त की तारीफ़ सब दुरुस्त लेकिन ख़ुदा करे वो तिरा जल्वा-गाह हो...

सीमाब-पुश्त गर्मी-ए-आईना दे है हम हैराँ किए हुए हैं दिल-ए-बे-क़रार के आग़ोश-ए-गुल कुशूदा बरा-ए-विदा है ऐ अंदलीब चल कि चले दिन बहार के...

न लेवे गर ख़स-ए-जौहर तरावत सब्ज़ा-ए-ख़त से लगाए ख़ाना-ए-आईना में रू-ए-निगार आतिश फ़रोग़-ए-हुस्न से होती है हल्ल-ए-मुश्किल-ए-आशिक़ न निकले शम्अ' के पा से निकाले गर न ख़ार आतिश...

तुझ से तो कुछ कलाम नहीं लेकिन ऐ नदीम मेरा सलाम कहियो अगर नामा-बर मिले...

है पर-ए-सरहद-ए-इदराक से अपना मसजूद क़िबले को अहल-ए-नज़र क़िबला-नुमा कहते हैं...

दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ जम्अ करते हो क्यूँ रक़ीबों को इक तमाशा हुआ गिला न हुआ...

बहुत सही ग़म-ए-गीती शराब कम क्या है ग़ुलाम-ए-साक़ी-ए-कौसर हूँ मुझ को ग़म क्या है तुम्हारी तर्ज़-ओ-रविश जानते हैं हम क्या है रक़ीब पर है अगर लुत्फ़ तो सितम क्या है...

दाम-ए-हर-मौज में है हल्क़ा-ए-सद-काम-ए-नहंग देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गुहर होते तक...

सर-गश्तगी में आलम-ए-हस्ती से यास है तस्कीं को दे नवेद कि मरने की आस है लेता नहीं मिरे दिल-ए-आवारा की ख़बर अब तक वो जानता है कि मेरे ही पास है...

ये लाश-ए-बे-कफ़न 'असद'-ए-ख़स्ता-जाँ की है हक़ मग़फ़िरत करे अजब आज़ाद मर्द था...

क्या ख़ूब तुम ने ग़ैर को बोसा नहीं दिया बस चुप रहो हमारे भी मुँह में ज़बान है...

मैं भला कब था सुख़न-गोई पे माइल 'ग़ालिब' शेर ने की ये तमन्ना के बने फ़न मेरा...

आँख की तस्वीर सर-नामे पे खींची है कि ता तुझ पे खुल जावे कि इस को हसरत-ए-दीदार है...

आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे ऐसा कहाँ से लाऊँ कि तुझ सा कहें जिसे हसरत ने ला रखा तिरी बज़्म-ए-ख़याल में गुल-दस्ता-ए-निगाह सुवैदा कहें जिसे...

माना-ए-दश्त-नवर्दी कोई तदबीर नहीं एक चक्कर है मिरे पाँव में ज़ंजीर नहीं शौक़ उस दश्त में दौड़ाए है मुझ को कि जहाँ जादा ग़ैर अज़ निगह-ए-दीदा-ए-तस्वीर नहीं...

ने तीर कमाँ में है न सय्याद कमीं में गोशे में क़फ़स के मुझे आराम बहुत है...

गरचे है तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल पर्दा-दार-ए-राज़-ए-इश्क़ पर हम ऐसे खोए जाते हैं कि वो पा जाए है...

है आरमीदगी में निकोहिश बजा मुझे सुब्ह-ए-वतन है ख़ंदा-ए-दंदाँ-नुमा मुझे ढूँडे है उस मुग़ंन्नी-ए-आतिश-नफ़स को जी जिस की सदा हो जल्वा-ए-बर्क़-ए-फ़ना मुझे...

दिल में ज़ौक़-ए-वस्ल ओ याद-ए-यार तक बाक़ी नहीं आग इस घर में लगी ऐसी कि जो था जल गया...

पा-ब-दामन हो रहा हूँ बस-कि मैं सहरा-नवर्द ख़ार-ए-पा हैं जौहर-ए-आईना-ए-ज़ानू मुझे देखना हालत मिरे दिल की हम-आग़ोशी के वक़्त है निगाह-ए-आश्ना तेरा सर-ए-हर-मू मुझे...

क्यूँकर उस बुत से रखूँ जान अज़ीज़ क्या नहीं है मुझे ईमान अज़ीज़ दिल से निकला पे न निकला दिल से है तिरे तीर का पैकान अज़ीज़...

जब तक कि न देखा था क़द-ए-यार का आलम मैं मो'तक़िद-ए-फ़ित्ना-ए-महशर न हुआ था...

है ख़बर गर्म उन के आने की आज ही घर में बोरिया न हुआ...

है आदमी बजाए ख़ुद इक महशर-ए-ख़याल हम अंजुमन समझते हैं ख़ल्वत ही क्यूँ न हो...

नहीं कि मुझ को क़यामत का ए'तिक़ाद नहीं शब-ए-फ़िराक़ से रोज़-ए-जज़ा ज़ियाद नहीं कोई कहे कि शब-ए-मह में क्या बुराई है बला से आज अगर दिन को अब्र ओ बाद नहीं...

या-रब ज़माना मुझ को मिटाता है किस लिए लौह-ए-जहाँ पे हर्फ़-ए-मुकर्रर नहीं हूँ मैं...

लब-ए-ईसा की जुम्बिश करती है गहवारा-जम्बानी क़यामत कुश्त-ए-लाल-ए-बुताँ का ख़्वाब-ए-संगीं है बयाबान-ए-फ़ना है बाद-ए-सहरा-ए-तलब 'ग़ालिब' पसीना-तौसन-ए-हिम्मत तो सैल-ए-ख़ाना-ए-जीं है...

बोसा कैसा यही ग़नीमत है कि न समझे वो लज़्ज़त-ए-दुश्नाम...

ख़त लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के...

दोनों जहान दे के वो समझे ये ख़ुश रहा याँ आ पड़ी ये शर्म कि तकरार क्या करें थक थक के हर मक़ाम पे दो चार रह गए तेरा पता न पाएँ तो नाचार क्या करें...

अगर ग़फ़लत से बाज़ आया जफ़ा की तलाफ़ी की भी ज़ालिम ने तो क्या की...

वुसअत-ए-सई-ए-करम देख कि सर-ता-सर-ए-ख़ाक गुज़रे है आबला-पा अब्र-ए-गुहर-बार हुनूज़ यक-क़लम काग़ज़-ए-आतिश-ज़दा है सफ़्हा-ए-दश्त नक़्श-ए-पा में है तब-ए-गर्मी-ए-रफ़्तार हुनूज़...

है अब इस मामूरे में क़हत-ए-ग़म-ए-उल्फ़त 'असद' हम ने ये माना कि दिल्ली में रहें खावेंगे क्या...

दे मुझ को शिकायत की इजाज़त कि सितमगर कुछ तुझ को मज़ा भी मिरे आज़ार में आवे...

शुमार-ए-सुब्हा मर्ग़ूब-ए-बुत-ए-मुश्किल-पसंद आया तमाशा-ए-ब-यक-कफ़ बुर्दन-ए-सद-दिल-पसंद आया ब-फैज़-ए-बे-दिली नौमीदी-ए-जावेद आसाँ है कुशायिश को हमारा उक़्दा-ए-मुश्किल-पसंद आया...