क्यूँकर उस बुत से रखूँ जान अज़ीज़
क्यूँकर उस बुत से रखूँ जान अज़ीज़ क्या नहीं है मुझे ईमान अज़ीज़ दिल से निकला पे न निकला दिल से है तिरे तीर का पैकान अज़ीज़ ताब लाए ही बनेगी 'ग़ालिब' वाक़िआ सख़्त है और जान अज़ीज़

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