ग़म खाने में बोदा दिल-ए-नाकाम बहुत है ये रंज कि कम है मय-ए-गुलफ़ाम बहुत है कहते हुए साक़ी से हया आती है वर्ना है यूँ कि मुझे दुर्द-ए-तह-ए-जाम बहुत है...
हज़रत-ए-नासेह गर आवें दीदा ओ दिल फ़र्श-ए-राह कोई मुझ को ये तो समझा दो कि समझाएँगे क्या...
मस्जिद के ज़ेर-ए-साया ख़राबात चाहिए भौं पास आँख क़िबला-ए-हाजात चाहिए आशिक़ हुए हैं आप भी एक और शख़्स पर आख़िर सितम की कुछ तो मुकाफ़ात चाहिए...
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है आख़िर इस दर्द की दवा क्या है हम हैं मुश्ताक़ और वो बे-ज़ार या इलाही ये माजरा क्या है...
गुलशन में बंदोबस्त ब-रंग-ए-दिगर है आज क़ुमरी का तौक़ हल्क़ा-ए-बैरून-ए-दर है आज आता है एक पारा-ए-दिल हर फ़ुग़ाँ के साथ तार-ए-नफ़स कमंद-ए-शिकार-ए-असर है आज...
दर-ख़ूर-ए-क़हर-ओ-ग़ज़ब जब कोई हम सा न हुआ फिर ग़लत क्या है कि हम सा कोई पैदा न हुआ बंदगी में भी वो आज़ादा ओ ख़ुद-बीं हैं कि हम उल्टे फिर आए दर-ए-काबा अगर वा न हुआ...
तस्कीं को हम न रोएँ जो ज़ौक़-ए-नज़र मिले हूरान-ए-ख़ुल्द में तिरी सूरत मगर मिले अपनी गली में मुझ को न कर दफ़्न बाद-ए-क़त्ल मेरे पते से ख़ल्क़ को क्यूँ तेरा घर मिले...
शिकवे के नाम से बे-मेहर ख़फ़ा होता है ये भी मत कह कि जो कहिए तो गिला होता है पुर हूँ मैं शिकवे से यूँ राग से जैसे बाजा इक ज़रा छेड़िए फिर देखिए क्या होता है...
कहते हो न देंगे हम दिल अगर पड़ा पाया दिल कहाँ कि गुम कीजे हम ने मुद्दआ पाया इश्क़ से तबीअत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया दर्द की दवा पाई दर्द-ए-बे-दवा पाया...
जराहत-तोहफ़ा अल्मास-अर्मुग़ाँ दाग़-ए-जिगर हदिया मुबारकबाद 'असद' ग़म-ख़्वार-ए-जान-ए-दर्दमंद आया...
हरीफ़-ए-मतलब-ए-मुश्किल नहीं फ़ुसून-ए-नियाज़ दुआ क़ुबूल हो या रब कि उम्र-ए-ख़िज़्र दराज़! न हो ब-हर्ज़ा बयाबाँ-नवर्द-ए-वहम-ए-वजूद हनूज़ तेरे तसव्वुर में है नशेब-ओ-फ़राज़...
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले...
ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं कभी सबा को कभी नामा-बर को देखते हैं वो आए घर में हमारे ख़ुदा की क़ुदरत है कभी हम उन को कभी अपने घर को देखते हैं...
एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब ख़ून-ए-जिगर वदीअत-ए-मिज़्गान-ए-यार था अब मैं हूँ और मातम-ए-यक-शहर-आरज़ू तोड़ा जो तू ने आइना तिमसाल-दार था...
सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का वो इक गुल-दस्ता है हम बे-ख़ुदों के ताक़-ए-निस्याँ का...
वफ़ा-दारी ब-शर्त-ए-उस्तुवारी अस्ल ईमाँ है मरे बुत-ख़ाने में तो काबे में गाड़ो बिरहमन को...
न पूछ नुस्ख़ा-ए-मरहम जराहत-ए-दिल का कि उस में रेज़ा-ए-अल्मास जुज़्व-ए-आज़म है बहुत दिनों में तग़ाफ़ुल ने तेरे पैदा की वो इक निगह कि ब-ज़ाहिर निगाह से कम है...
फिर इस अंदाज़ से बहार आई कि हुए मेहर ओ मह तमाशाई देखो ऐ साकिनान-ए-ख़ित्ता-ए-ख़ाक इस को कहते हैं आलम-आराई...
दहर में नक़्श-ए-वफ़ा वजह-ए-तसल्ली न हुआ है ये वो लफ़्ज़ कि शर्मिंदा-ए-मअ'नी न हुआ सब्ज़ा-ए-ख़त से तिरा काकुल-ए-सरकश न दबा ये ज़मुर्रद भी हरीफ़-ए-दम-ए-अफ़ई न हुआ...
जुज़ क़ैस और कोई न आया ब-रू-ए-कार सहरा मगर ब-तंगी-ए-चश्म-ए-हसूद था आशुफ़्तगी ने नक़्श-ए-सुवैदा किया दुरुस्त ज़ाहिर हुआ कि दाग़ का सरमाया दूद था...