जो हुआ 'जौन' वो हुआ भी नहीं यानी जो कुछ भी था वो था भी नहीं बस गया जब वो शहर-ए-दिल में मिरे फिर मैं इस शहर में रहा भी नहीं...
बे-क़रारी सी बे-क़रारी है वस्ल है और फ़िराक़ तारी है जो गुज़ारी न जा सकी हम से हम ने वो ज़िंदगी गुज़ारी है...
दिल ने किया है क़स्द-ए-सफ़र घर समेट लो जाना है इस दयार से मंज़र समेट लो आज़ादगी में शर्त भी है एहतियात की परवाज़ का है इज़्न मगर पर समेट लो...
चारागर भी जो यूँ गुज़र जाएँ फिर ये बीमार किस के घर जाएँ आज का ग़म बड़ी क़यामत है आज सब नक़्श-ए-ग़म उभर जाएँ...
अभी फ़रमान आया है वहाँ से कि हट जाऊँ मैं अपने दरमियाँ से यहाँ जो है तनफ़्फ़ुस ही में गुम है परिंदे उड़ रहे हैं शाख़-ए-जाँ से...
तू भी चुप है मैं भी चुप हूँ ये कैसी तन्हाई है तेरे साथ तिरी याद आई क्या तू सच-मुच आई है शायद वो दिन पहला दिन था पलकें बोझल होने का मुझ को देखते ही जब उस की अंगड़ाई शर्माई है...
दीद की एक आन में कार-ए-दवाम हो गया वो भी तमाम हो गया मैं भी तमाम हो गया अब मैं हूँ इक अज़ाब में और अजब अज़ाब में जन्नत-ए-पुर-सुकूत में मुझ से कलाम हो गया...
जी ही जी में वो जल रही होगी चाँदनी में टहल रही होगी चाँद ने तान ली है चादर-ए-अब्र अब वो कपड़े बदल रही होगी...
नाम ही क्या निशाँ ही क्या ख़्वाब-ओ-ख़याल हो गए तेरी मिसाल दे के हम तेरी मिसाल हो गए साया-ए-ज़ात से भी रम अक्स-ए-सिफ़ात से भी रम दश्त-ए-ग़ज़ल में आ के देख हम तो ग़ज़ाल हो गए...
न पूछ उस की जो अपने अंदर छुपा ग़नीमत कि मैं अपने बाहर छुपा मुझे याँ किसी पे भरोसा नहीं मैं अपनी निगाहों से छुप कर छुपा...
दिल को दुनिया का है सफ़र दरपेश और चारों तरफ़ है घर दरपेश है ये आलम अजीब और यहाँ माजरा है अजीब-तर दरपेश...
ख़ूब है शौक़ का ये पहलू भी मैं भी बर्बाद हो गया तू भी हुस्न-ए-मग़मूम तमकनत में तिरी फ़र्क़ आया न यक-सर-ए-मू भी...
तंग आग़ोश में आबाद करूँगा तुझ को हूँ बहुत शाद कि नाशाद करूँगा तुझ को फ़िक्र-ए-ईजाद में गुम हूँ मुझे ग़ाफ़िल न समझ अपने अंदाज़ पर ईजाद करूँगा तुझ को...
गँवाई किस की तमन्ना में ज़िंदगी मैं ने वो कौन है जिसे देखा नहीं कभी मैं ने तिरा ख़याल तो है पर तिरा वजूद नहीं तिरे लिए तो ये महफ़िल सजाई थी मैं ने...
अब वो घर इक वीराना था बस वीराना ज़िंदा था सब आँखें दम तोड़ चुकी थीं और मैं तन्हा ज़िंदा था सारी गली सुनसान पड़ी थी बाद-ए-फ़ना के पहरे में हिज्र के दालान और आँगन में बस इक साया ज़िंदा था...
बरस गुज़रे तुम्हें सोए हुए उठ जाओ सुनती हो अब उठ जाओ मैं आया हूँ मैं अंदाज़े से समझा हूँ...
रंज है हालत-ए-सफ़र हाल-ए-क़याम रंज है सुब्ह-ब-सुब्ह रंज है शाम-ब-शाम रंज है उस की शमीम-ए-ज़ुल्फ़ का कैसे हो शुक्रिया अदा जब कि शमीम रंज है जब कि मशाम रंज है...
सारे रिश्ते तबाह कर आया दिल-ए-बर्बाद अपने घर आया आख़िरश ख़ून थूकने से मियाँ बात में तेरी क्या असर आया...