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एक ही मुज़्दा सुब्ह लाती है धूप आँगन में फैल जाती है रंग-ए-मौसम है और बाद-ए-सबा शहर कूचों में ख़ाक उड़ाती है...

शर्मिंदगी है हम को बहुत हम मिले तुम्हें तुम सर-ब-सर ख़ुशी थे मगर ग़म मिले तुम्हें मैं अपने आप में न मिला इस का ग़म नहीं ग़म तो ये है कि तुम भी बहुत कम मिले तुम्हें...

बहुत नज़दीक आती जा रही हो बिछड़ने का इरादा कर लिया क्या...

याद उसे इंतिहाई करते हैं सो हम उस की बुराई करते हैं...

वफ़ा इख़्लास क़ुर्बानी मोहब्बत अब इन लफ़्ज़ों का पीछा क्यूँ करें हम...

हाँ ठीक है मैं अपनी अना का मरीज़ हूँ आख़िर मिरे मिज़ाज में क्यूँ दख़्ल दे कोई...

नया इक रिश्ता पैदा क्यूँ करें हम बिछड़ना है तो झगड़ा क्यूँ करें हम...

शमशीर मेरी, मेरी सिपर किस के पास है दो मेरा ख़ूद पर मिरा सर किस के पास है दरपेश एक काम है हिम्मत का साथियो कसना है मुझ को मेरी कमर किस के पास है...

उस ने गोया मुझी को याद रखा मैं भी गोया उसी को भूल गया...

ज़िंदगी किस तरह बसर होगी दिल नहीं लग रहा मोहब्बत में...

ऐ सुब्ह मैं अब कहाँ रहा हूँ ख़्वाबों ही में सर्फ़ हो चुका हूँ सब मेरे बग़ैर मुतमइन हैं मैं सब के बग़ैर जी रहा हूँ...

रोया हूँ तो अपने दोस्तों में पर तुझ से तो हँस के ही मिला हूँ...

है वो बेचारगी का हाल कि हम हर किसी को सलाम कर रहे हैं...

चाहे तुम मेरी बीनाई खुरच डालो फिर भी अपने ख़्वाब नहीं छोड़ूँगा उन की लज़्ज़त और अज़िय्यत से मैं अपना कोई अहद नहीं तोडूँगा तेज़ नज़र ना-बीनाओं की आबादी में क्या मैं अपने ध्यान की ये पूँजी भी गिनवा दूँ...

जान-लेवा थीं ख़्वाहिशें वर्ना वस्ल से इंतिज़ार अच्छा था...

अब ख़ाक उड़ रही है यहाँ इंतिज़ार की ऐ दिल ये बाम-ओ-दर किसी जान-ए-जहाँ के थे...

सर ही अब फोड़िए नदामत में नींद आने लगी है फ़ुर्क़त में हैं दलीलें तिरे ख़िलाफ़ मगर सोचता हूँ तिरी हिमायत में...

रूह प्यासी कहाँ से आती है ये उदासी कहाँ से आती है है वो यक-सर सुपुर्दगी तो भला बद-हवासी कहाँ से आती है...

मसनद-ए-ग़म पे जच रहा हूँ मैं अपना सीना खुरच रहा हूँ मैं ऐ सगान-ए-गुरसना-ए-अय्याम जूँ ग़िज़ा तुम को पच रहा हूँ मैं...

अपने अंदर हँसता हूँ मैं और बहुत शरमाता हूँ ख़ून भी थूका सच-मुच थूका और ये सब चालाकी थी...

हमारे ज़ख़्म-ए-तमन्ना पुराने हो गए हैं कि उस गली में गए अब ज़माने हो गए हैं...

हम जो अब आदमी हैं पहले कभी जाम होंगे छलक गए होंगे...

ख़्वाब की हालतों के साथ तेरी हिकायतों में हैं हम भी दयार-ए-अहल-ए-दिल तेरी रिवायतों में हैं वो जो थे रिश्ता-हा-ए-जाँ टूट सके भला कहाँ जान वो रिश्ता-हा-ए-जाँ अब भी शिकायतों में हैं...

ख़ूब है शौक़ का ये पहलू भी मैं भी बर्बाद हो गया तू भी...

न रखा हम ने बेश-ओ-कम का ख़याल शौक़ को बे-हिसाब ही लिक्खा...

मेरी बाँहों में बहकने की सज़ा भी सुन ले अब बहुत देर में आज़ाद करूँगा तुझ को...

किया था अहद जब लम्हों में हम ने तो सारी उम्र ईफ़ा क्यूँ करें हम...

यादों का हिसाब रख रहा हूँ सीने में अज़ाब रख रहा हूँ तुम कुछ कहे जाओ क्या कहूँ मैं बस दिल में जवाब रख रहा हूँ...

कौन इस घर की देख-भाल करे रोज़ इक चीज़ टूट जाती है...

ख़ुदा से ले लिया जन्नत का व'अदे ये ज़ाहिद तो बड़े ही घाग निकले...

दिल ने वफ़ा के नाम पर कार-ए-वफ़ा नहीं किया ख़ुद को हलाक कर लिया ख़ुद को फ़िदा नहीं किया ख़ीरा-सरान-ए-शौक़ का कोई नहीं है जुम्बा-दार शहर में इस गिरोह ने किस को ख़फ़ा नहीं किया...

वो किताब-ए-हुस्न वो इल्म ओ अदब की तालीबा वो मोहज़्ज़ब वो मुअद्दब वो मुक़द्दस राहिबा किस क़दर पैराया परवर और कितनी सादा-कार किस क़दर संजीदा ओ ख़ामोश कितनी बा-वक़ार...

जाओ क़रार-ए-बे-दिलाँ शाम-ब-ख़ैर शब-ब-ख़ैर सहन हुआ धुआँ धुआँ शाम-ब-ख़ैर शब-ब-ख़ैर शाम-ए-विसाल है क़रीब सुब्ह-ए-कमाल है क़रीब फिर न रहेंगे सरगिराँ शाम-ब-ख़ैर शब-ब-ख़ैर...

जान-ए-मन तेरी बे-नक़ाबी ने आज कितने नक़ाब बेचे हैं...

तुम जब आओगी तो खोया हुआ पाओगी मुझे मेरी तन्हाई में ख़्वाबों के सिवा कुछ भी नहीं मेरे कमरे को सजाने की तमन्ना है तुम्हें मेरे कमरे में किताबों के सिवा कुछ भी नहीं...

ज़िंदगी क्या है इक कहानी है ये कहानी नहीं सुनानी है है ख़ुदा भी अजीब यानी जो न ज़मीनी न आसमानी है...

मुस्तक़िल बोलता ही रहता हूँ कितना ख़ामोश हूँ मैं अंदर से...

तुझ से गिले करूँ तुझे जानाँ मनाऊँ मैं इक बार अपने-आप में आऊँ तो आऊँ मैं दिल से सितम की बे-सर-ओ-कारी हवा को है वो गर्द उड़ रही है कि ख़ुद को गँवाऊँ मैं...

कौन आया है कोई नहीं आया है पागल तेज़ हवा के झोंके से दरवाज़ा खुला है अच्छा यूँ है...

अपने सब यार काम कर रहे हैं और हम हैं कि नाम कर रहे हैं...