कुछ लोग ख़यालों से चले जाएँ तो सोएँ बीते हुए दिन रात न याद आएँ तो सोएँ चेहरे जो कभी हम को दिखाई नहीं देंगे आ आ के तसव्वुर में न तड़पाएँ तो सोएँ...
दिल की कोंपल हरी तेरे होने से है ज़िंदगी ज़िंदगी तेरे होने से है किश्त-ज़ारों में तू कार-ख़ानों में तू इन ज़मीनों में तू आसमानों में तू...
दरख़्त सूख गए रुक गए नदी नाले ये किस नगर को रवाना हुए हैं घर वाले कहानियाँ जो सुनाते थे अहद-ए-रफ़्ता की निशाँ वो गर्दिश-ए-अय्याम ने मिटा डाले...
वो देखने मुझे आना तो चाहता होगा मगर ज़माने की बातों से डर गया होगा उसे था शौक़ बहुत मुझ को अच्छा रखने का ये शौक़ औरों को शायद बुरा लगा होगा...
महताब-सिफ़त लोग यहाँ ख़ाक-बसर हैं हम महव-ए-तमाशा-ए-सर-ए-राह-गुज़र हैं हसरत सी बरसती है दर-ओ-बाम पे हर सू रोती हुई गलियाँ हैं सिसकते हुए घर हैं...
कैसे कहें कि याद-ए-यार रात जा चुकी बहुत रात भी अपने साथ साथ आँसू बहा चुकी बहुत चाँद भी है थका थका तारे भी हैं बुझे बुझे तिरे मिलन की आस फिर दीप जला चुकी बहुत...
घर के ज़िंदाँ से उसे फ़ुर्सत मिले तो आए भी जाँ-फ़ज़ा बातों से आ के मेरा दिल बहलाए भी लग के ज़िंदाँ की सलाख़ों से मुझे वो देख ले कोई ये पैग़ाम मेरा उस तलक पहुँचाए भी...
सदा आ रही है मरे दिल से पैहम कि होगा हर इक दुश्मन-ए-जाँ का सर ख़म नहीं है निज़ाम-ए-हलाकत में कुछ दम ज़रूरत है इंसान की अम्न-ए-आलम...
क़स्र-ए-शाही से ये हुक्म सादिर हुआ लाड़काने चलो वर्ना थाने चलो अपने होंटों की ख़ुश्बू लुटाने चलो गीत गाने चलो वर्ना थाने चलो...
हुजूम देख के रस्ता नहीं बदलते हम किसी के डर से तक़ाज़ा नहीं बदलते हम हज़ार ज़ेर-ए-क़दम रास्ता हो ख़ारों का जो चल पड़ें तो इरादा नहीं बदलते हम...
तेरी आँखों का अजब तुर्फ़ा समाँ देखा है एक आलम तिरी जानिब निगराँ देखा है कितने अनवार सिमट आए हैं इन आँखों में इक तबस्सुम तिरे होंटों पे रवाँ देखा है ...
ये और बात तेरी गली में न आएँ हम लेकिन ये क्या कि शहर तिरा छोड़ जाएँ हम मुद्दत हुई है कू-ए-बुताँ की तरफ़ गए आवारगी से दिल को कहाँ तक बचाएँ हम...
दिल की बात लबों पर ला कर अब तक हम दुख सहते हैं हम ने सुना था इस बस्ती में दिल वाले भी रहते हैं बीत गया सावन का महीना मौसम ने नज़रें बदलीं लेकिन इन प्यासी आँखों से अब तक आँसू बहते हैं...
'ग़ालिब'-ओ-'यगाना' से लोग भी थे जब तन्हा हम से तय न होगी क्या मंज़िल-ए-अदब तन्हा फ़िक्र-ए-अंजुमन किस को कैसी अंजुमन प्यारे अपना अपना ग़म सब का सोचिए तो सब तन्हा...
इक हसीं गाँव था कनार-ए-आब कितना शादाब था दयार-ए-आब क्या अजब बे-नियाज़ बस्ती थी मुफ़्लिसी में भी एक मस्ती थी...
बहुत मैं ने सुनी है आप की तक़रीर मौलाना मगर बदली नहीं अब तक मिरी तक़दीर मौलाना ख़ुदारा शुक्र की तल्क़ीन अपने पास ही रक्खें ये लगती है मिरे सीने पे बन कर तीर मौलाना...
आख़िर-ए-कार ये साअत भी क़रीब आ पहुँची तू मिरी जान किसी और की हो जाएगी कल तलक मेरा मुक़द्दर थी तिरी ज़ुल्फ़ की शाम क्या तग़य्युर है कि तू ग़ैर की कहलाएगी...