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दोस्तो क्या क्या दिवाली में नशात-ओ-ऐश है सब मुहय्या है जो इस हंगाम के शायाँ है शय इस तरह हैं कूचा-ओ-बाज़ार पर नक़्श-ओ-निगार हो अयाँ हुस्न-ए-निगारिसताँ की जिन से ख़ूब रे...

क्यूँ नहीं लेता हमारी तू ख़बर ऐ बे-ख़बर क्या तिरे आशिक़ हुए थे दर्द-ओ-ग़म खाने को हम...

कर लेते अलग हम तो दिल इस शोख़ से कब का गर और भी होता कोई इस तौर की छब का बोसा की एवज़ होते हैं दुश्नाम से मसरूर इतना तो करम हम पे भी है यार के लब का...

अबस मेहनत है कुछ हासिल नहीं पत्थर-तराशी से यही मज़मून था फ़रहाद के तेशे की खट-खट का...

ये दिल-ए-नादाँ हमारा भी अजब दीवाना था उस को अपना घर ये समझा था जो मेहमाँ-ख़ाना था थे जो बेगाने यगाने उन को गिनता था ब-जाँ इस क़दर ग़फ़लत में अक़्ल-ओ-होश से बेगाना था...

मय भी है मीना भी है साग़र भी है साक़ी नहीं दिल में आता है लगा दें आग मय-ख़ाने को हम...

न उस के नाम से वाक़िफ़ न उस की जा मालूम मिलेगा देखिए क्यूँकर वो बुत ख़ुदा मालूम जवाब देखिए दिल ले के ये कहा चुपके न हो ये और किसी को तिरे सिवा मालूम...

जिस्म क्या रूह की है जौलाँ-गाह रूह क्या इक सवार-ए-पा-ब-रकाब...

दीवानगी मेरी के तहय्युर में शब-ओ-रोज़ है हल्क़ा-ए-ज़ंजीर से ज़िंदाँ हमा-तन-चश्म...

अंदाज़ कुछ और नाज़-ओ-अदा और ही कुछ है जो बात है वो नाम-ए-ख़ुदा और ही कुछ है न बर्क़ न ख़ुर्शीद न शोला न भभूका क्यूँ साहिबो ये हुस्न है या और ही कुछ है...

हुस्न के नाज़ उठाने के सिवा हम से और हुस्न-ए-अमल क्या होगा...

चमक है दर्द है कौंदन पड़ी है हूक उठती है मिरे पहलू में क्यूँ यारो ये दिल है या कि फोड़ा है...

नीची निगह की हम ने तो उस ने मुँह को छुपाना छोड़ दिया कुछ जो हुई फिर ऊँची तो रुख़ से पर्दा उठाना छोड़ दिया ज़ुल्फ़ से जकड़ा पहले तो दिल फिर उस का तमाशा देखने को नज़रों का उस पर सेहर किया और कर के दिवाना छोड़ दिया...

नामा-ए-यार जो सहर पहुँचा ख़ुश-रक़म ख़ूब वक़्त पर पहुँचा था लिखा यूँ कि ऐ 'नज़ीर' अब तक किस सबब तू नहीं इधर पहुँचा...

ग़श खा के गिरा पहले ही शोले की झलक से मूसा को भला कहिए तो क्या तूर की सूझी...

मिला मुझ से वो आज चंचल छबीला हुआ रंग सुन कर रक़ीबों का नीला किया मुझ से जिस ने अदावत का पंजा सनुलक़ी अलैका क़ाैलन सक़ीला...

शहर में लगता नहीं सहरा में घबराता है दिल अब कहाँ ले जा के बैठें ऐसे दीवाने को हम...