हम ने सीने से लगाया दिल न अपना बन सका मुस्कुरा कर तुम ने देखा दिल तुम्हारा हो गया...
लाखों में इंतिख़ाब के क़ाबिल बना दिया जिस दिल को तुम ने देख लिया दिल बना दिया हर-चंद कर दिया मुझे बर्बाद इश्क़ ने लेकिन उन्हें तो शेफ़्ता-ए-दिल बना दिया...
आ कि तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त घबराता हूँ मैं जैसे हर शय में किसी शय की कमी पाता हूँ मैं...
तिरे जमाल-ए-हक़ीक़त की ताब ही न हुई हज़ार बार निगह की मगर कभी न हुई तिरी ख़ुशी से अगर ग़म में भी ख़ुशी न हुई वो ज़िंदगी तो मोहब्बत की ज़िंदगी न हुई...
अगर न ज़ोहरा-जबीनों के दरमियाँ गुज़रे तो फिर ये कैसे कटे ज़िंदगी कहाँ गुज़रे जो तेरे आरिज़ ओ गेसू के दरमियाँ गुज़रे कभी कभी वही लम्हे बला-ए-जाँ गुज़रे...
हाए रे मजबूरियाँ महरूमियाँ नाकामियाँ इश्क़ आख़िर इश्क़ है तुम क्या करो हम क्या करें...
ये मिस्रा काश नक़्श-ए-हर-दर-ओ-दीवार हो जाए जिसे जीना हो मरने के लिए तय्यार हो जाए...
एहसास-ए-आशिक़ी ने बेगाना कर दिया है यूँ भी किसी ने अक्सर दीवाना कर दिया है अब क्या उम्मीद रक्खूँ ऐ हुस्न-ए-यार तुझ से तू ने तो मुस्कुरा कर दीवाना कर दिया है...
उस की नज़रों में इंतिख़ाब हुआ दिल अजब हुस्न से ख़राब हुआ इश्क़ का सेहर कामयाब हुआ मैं तिरा तू मिरा जवाब हुआ...
इश्क़-ए-ला-महदूद जब तक रहनुमा होता नहीं ज़िंदगी से ज़िंदगी का हक़ अदा होता नहीं बे-कराँ होता नहीं बे-इंतिहा होता नहीं क़तरा जब तक बढ़ के क़ुल्ज़ुम-आश्ना होता नहीं...
अब तो ये भी नहीं रहा एहसास दर्द होता है या नहीं होता इश्क़ जब तक न कर चुके रुस्वा आदमी काम का नहीं होता...
अल्लाह अगर तौफ़ीक़ न दे इंसान के बस का काम नहीं फ़ैज़ान-ए-मोहब्बत आम सही इरफ़ान-ए-मोहब्बत आम नहीं ये तू ने कहा क्या ऐ नादाँ फ़य्याज़ी-ए-क़ुदरत आम नहीं तू फ़िक्र ओ नज़र तो पैदा कर क्या चीज़ है जो इनआम नहीं...
ख़ुशा बेदाद ख़ून-ए-हसरत-ए-बेदाद होता है सितम ईजाद करते हो करम ईजाद होता है ब-ज़ाहिर कुछ नहीं कहते मगर इरशाद होता है हम उस के हैं जो हम पर हर तरह बर्बाद होता है...
चश्म पुर-नम ज़ुल्फ़ आशुफ़्ता निगाहें बे-क़रार इस पशीमानी के सदक़े मैं पशीमाँ हो गया...
जुनूँ कम जुस्तुजू कम तिश्नगी कम नज़र आए न क्यूँ दरिया भी शबनम ब-हम्द-ओ-लिल्लाह तू है जिस का हमदम कहाँ उस क़ल्ब में गुंजाइश-ए-ग़म...
मोहब्बत आप अपनी तर्जुमाँ है यही ख़ुद चश्म ओ दिल लफ़्ज़ ओ बयाँ है निगाहों में बहार-ए-जावेदाँ है जहाँ मैं हूँ वहीं अब आशियाँ है...
सितम-ए-कामयाब ने मारा करम-ए-ला-जवाब ने मारा ख़ुद हुई गुम हमें भी खो बैठी निगह-ए-बाज़याब ने मारा...
कभी शाख़ ओ सब्ज़ा ओ बर्ग पर कभी ग़ुंचा ओ गुल ओ ख़ार पर मैं चमन में चाहे जहाँ रहूँ मिरा हक़ है फ़स्ल-ए-बहार पर...
अल्लाह रे इस गुलशन-ए-ईजाद का आलम जो सैद का आलम वही सय्याद का आलम उफ़ रंग-ए-रुख़-ए-बानी-ए-बेदाद का आलम जैसे किसी मज़लूम की फ़रियाद का आलम...
ये ज़र्रे जिन को हम ख़ाक-ए-रह-ए-मंज़़िल समझते हैं ज़बान-ए-हाल रखते हैं ज़बान-ए-दिल समझते हैं जिसे सब लोग हुस्न ओ इश्क़ की मंज़िल समझते हैं बुलंद उस से भी हम अपना मक़ाम-ए-दिल समझते हैं...
क्या बराबर का मोहब्बत में असर होता है दिल इधर होता है ज़ालिम न उधर होता है हम ने क्या कुछ न किया दीदा-ए-दिल की ख़ातिर लोग कहते हैं दुआओं में असर होता है...
आँखों में बस के दिल में समा कर चले गए ख़्वाबीदा ज़िंदगी थी जगा कर चले गए हुस्न-ए-अज़ल की शान दिखा कर चले गए इक वाक़िआ सा याद दिला कर चले गए...
ग़र्क़ कर दे तुझ को ज़ाहिद तेरी दुनिया को ख़राब कम से कम इतनी तो हर मय-कश के पैमाने में है...
नज़र मिला के मिरे पास आ के लूट लिया नज़र हटी थी कि फिर मुस्कुरा के लूट लिया शिकस्त-ए-हुस्न का जल्वा दिखा के लूट लिया निगाह नीची किए सर झुका के लूट लिया...
आदमी आदमी से मिलता है दिल मगर कम किसी से मिलता है भूल जाता हूँ मैं सितम उस के वो कुछ इस सादगी से मिलता है...
सब पे तू मेहरबान है प्यारे कुछ हमारा भी ध्यान है प्यारे आ कि तुझ बिन बहुत दिनों से ये दिल एक सूना मकान है प्यारे...
राहत-ए-बे-खलिश अगर मिल भी गई तो क्या मज़ा तल्ख़ी-ए-ग़म भी चाहिए बादा-ए-ख़ुश-गवार में...