उसे अब के वफ़ाओं से गुज़र जाने की जल्दी थी मगर इस बार मुझ को अपने घर जाने की जल्दी थी इरादा था कि मैं कुछ देर तूफ़ाँ का मज़ा लेता मगर बेचारे दरिया को उतर जाने की जल्दी थी...
चराग़ों को उछाला जा रहा है हवा पर रोब डाला जा रहा है न हार अपनी न अपनी जीत होगी मगर सिक्का उछाला जा रहा है...
ज़िंदगी को ज़ख़्म की लज़्ज़त से मत महरूम कर रास्ते के पत्थरों से ख़ैरियत मालूम कर टूट कर बिखरी हुई तलवार के टुकड़े समेट और अपने हार जाने का सबब मालूम कर...
सिर्फ़ ख़ंजर ही नहीं आँखों में पानी चाहिए ऐ ख़ुदा दुश्मन भी मुझ को ख़ानदानी चाहिए शहर की सारी अलिफ़-लैलाएँ बूढ़ी हो चुकीं शाहज़ादे को कोई ताज़ा कहानी चाहिए...
मैं आख़िर कौन सा मौसम तुम्हारे नाम कर देता यहाँ हर एक मौसम को गुज़र जाने की जल्दी थी...
मैं लाख कह दूँ कि आकाश हूँ ज़मीं हूँ मैं मगर उसे तो ख़बर है कि कुछ नहीं हूँ मैं अजीब लोग हैं मेरी तलाश में मुझ को वहाँ पे ढूँड रहे हैं जहाँ नहीं हूँ मैं...
घर से ये सोच के निकला हूँ कि मर जाना है अब कोई राह दिखा दे कि किधर जाना है जिस्म से साथ निभाने की मत उम्मीद रखो इस मुसाफ़िर को तो रस्ते में ठहर जाना है...
मुझे डुबो के बहुत शर्मसार रहती है वो एक मौज जो दरिया के पार रहती है हमारे ताक़ भी बे-ज़ार हैं उजालों से दिए की लौ भी हवा पर सवार रहती है...
सब को रुस्वा बारी बारी किया करो हर मौसम में फ़तवे जारी किया करो रातों का नींदों से रिश्ता टूट चुका अपने घर की पहरे-दारी किया करो...
फ़ैसले लम्हात के नस्लों पे भारी हो गए बाप हाकिम था मगर बेटे भिकारी हो गए देवियाँ पहुँचीं थीं अपने बाल बिखराए हुए देवता मंदिर से निकले और पुजारी हो गए...
न हम-सफ़र न किसी हम-नशीं से निकलेगा हमारे पाँव का काँटा हमीं से निकलेगा मैं जानता था कि ज़हरीला साँप बन बन कर तिरा ख़ुलूस मिरी आस्तीं से निकलेगा...
कहीं अकेले में मिल कर झिंझोड़ दूँगा उसे जहाँ जहाँ से वो टूटा है जोड़ दूँगा उसे मुझे वो छोड़ गया ये कमाल है उस का इरादा मैं ने किया था कि छोड़ दूँगा उसे...
चमकते लफ़्ज़ सितारों से छीन लाए हैं हम आसमाँ से ग़ज़ल की ज़मीन लाए हैं वो और होंगे जो ख़ंजर छुपा के लाते हैं हम अपने साथ फटी आस्तीन लाए हैं...
ये सर्द रातें भी बन कर अभी धुआँ उड़ जाएँ वो इक लिहाफ़ मैं ओढूँ तो सर्दियाँ उड़ जाएँ ख़ुदा का शुक्र कि मेरा मकाँ सलामत है हैं उतनी तेज़ हवाएँ कि बस्तियाँ उड़ जाएँ...
शहर क्या देखें कि हर मंज़र में जाले पड़ गए ऐसी गर्मी है कि पीले फूल काले पड़ गए मैं अंधेरों से बचा लाया था अपने-आप को मेरा दुख ये है मिरे पीछे उजाले पड़ गए...
जा के ये कह दे कोई शोलों से चिंगारी से फूल इस बार खिले हैं बड़ी तय्यारी से अपनी हर साँस को नीलाम किया है मैं ने लोग आसान हुए हैं बड़ी दुश्वारी से...
काम सब ग़ैर-ज़रूरी हैं जो सब करते हैं और हम कुछ नहीं करते हैं ग़ज़ब करते हैं आप की नज़रों में सूरज की है जितनी अज़्मत हम चराग़ों का भी उतना ही अदब करते हैं...
अंधेरे चारों तरफ़ साएँ साएँ करने लगे चराग़ हाथ उठा कर दुआएँ करने लगे तरक़्क़ी कर गए बीमारियों के सौदागर ये सब मरीज़ हैं जो अब दवाएँ करने लगे...
सर पर सात आकाश ज़मीं पर सात समुंदर बिखरे हैं आँखें छोटी पड़ जाती हैं इतने मंज़र बिखरे हैं ज़िंदा रहना खेल नहीं है इस आबाद ख़राबे में वो भी अक्सर टूट गया है हम भी अक्सर बिखरे हैं...
बीमार को मरज़ की दवा देनी चाहिए मैं पीना चाहता हूँ पिला देनी चाहिए अल्लाह बरकतों से नवाज़ेगा इश्क़ में है जितनी पूँजी पास लगा देनी चाहिए...
हाथ ख़ाली हैं तिरे शहर से जाते जाते जान होती तो मिरी जान लुटाते जाते अब तो हर हाथ का पत्थर हमें पहचानता है उम्र गुज़री है तिरे शहर में आते जाते...
नदी ने धूप से क्या कह दिया रवानी में उजाले पाँव पटकने लगे हैं पानी में ये कोई और ही किरदार है तुम्हारी तरह तुम्हारा ज़िक्र नहीं है मिरी कहानी में...
मेरे अश्कों ने कई आँखों में जल-थल कर दिया एक पागल ने बहुत लोगों को पागल कर दिया अपनी पलकों पर सजा कर मेरे आँसू आप ने रास्ते की धूल को आँखों का काजल कर दिया...
उठी निगाह तो अपने ही रू-ब-रू हम थे ज़मीन आईना-ख़ाना थी चार-सू हम थे दिनों के बाद अचानक तुम्हारा ध्यान आया ख़ुदा का शुक्र कि उस वक़्त बा-वज़ू हम थे...
शजर हैं अब समर-आसार मेरे चले आते हैं दावेदार मेरे मुहाजिर हैं न अब अंसार मेरे मुख़ालिफ़ हैं बहुत इस बार मेरे...
आँख में पानी रखो होंटों पे चिंगारी रखो ज़िंदा रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो राह के पत्थर से बढ़ कर कुछ नहीं हैं मंज़िलें रास्ते आवाज़ देते हैं सफ़र जारी रखो...
रात की धड़कन जब तक जारी रहती है सोते नहीं हम ज़िम्मेदारी रहती है जब से तू ने हल्की हल्की बातें कीं यार तबीअत भारी भारी रहती है...
जो मंसबों के पुजारी पहन के आते हैं कुलाह तौक़ से भारी पहन के आते हैं अमीर-ए-शहर तिरी तरह क़ीमती पोशाक मिरी गली में भिकारी पहन के आते हैं...
अंदर का ज़हर चूम लिया धुल के आ गए कितने शरीफ़ लोग थे सब खुल के आ गए सूरज से जंग जीतने निकले थे बेवक़ूफ़ सारे सिपाही मोम के थे घुल के आ गए...
जब कभी फूलों ने ख़ुश्बू की तिजारत की है पत्ती पत्ती ने हवाओं से शिकायत की है यूँ लगा जैसे कोई इत्र फ़ज़ा में घुल जाए जब किसी बच्चे ने क़ुरआँ की तिलावत की है...
सिर्फ़ सच और झूट की मीज़ान में रक्खे रहे हम बहादुर थे मगर मैदान में रक्खे रहे जुगनुओं ने फिर अँधेरों से लड़ाई जीत ली चाँद सूरज घर के रौशन-दान में रक्खे रहे...
चराग़ों का घराना चल रहा है हवा से दोस्ताना चल रहा है जवानी की हवाएँ चल रही हैं बुज़ुर्गों का ख़ज़ाना चल रहा है...