दिल महव-ए-जमाल हो गया है या सर्फ़-ए-ख़याल हो गया है अब अपना ये हाल हो गया है जीना भी मुहाल हो गया है...
ये सरगोशियाँ कह रही हैं अब आओ कि बरसों से तुम को बुलाते बुलाते मिरे दिल पे गहरी थकन छा रही है कभी एक पल को कभी एक अर्सा सदाएँ सुनी हैं मगर ये अनोखी निदा आ रही है बुलाते बुलाते तो कोई न अब तक थका है न आइंदा शायद थकेगा...
ग़म के भरोसे क्या कुछ छोड़ा क्या अब तुम से बयान करें ग़म भी रास न आया दिल को और ही कुछ सामान करें करने और कहने की बातें किस ने कहीं और किस ने कीं करते कहते देखें किसी को हम भी कोई पैमान करें...
चाँद सितारे क़ैद हैं सारे वक़्त के बंदी-ख़ाने में लेकिन मैं आज़ाद हूँ साक़ी छोटे से पैमाने में उम्र है फ़ानी उम्र है बाक़ी इस की कुछ परवा ही नहीं तू ये कह दे वक़्त लगेगा कितना आने जाने में...
ज़माने में कोई बुराई नहीं है फ़क़त इक तसलसुल का झूला रवाँ है ये मैं कह रहा हूँ मैं कोई बुराई नहीं हूँ ज़माना नहीं हूँ तसलसुल का झूला नहीं हूँ...
मैं सोचता हूँ इक नज़्म लिखूँ लेकिन इस में क्या बात कहूँ इक बात में भी सौ बातें हैं कहीं जीतें हैं कहीं मातें हैं...
एक अकहरा दूसरा दोहरा तीसरा है सो तिहरा है एक अकहरे पर पल पल को ध्यान का ख़ूनीं पहरा है दूसरे दोहरे के रस्ते में तीसरा खेल का मुहरा है तीसरा तिहरा जो है उस का सब से उजागर चेहरा है...
बे-शुमार आँखों को चेहरे में लगाए हुए इस्तादा है तामीर का इक नक़्श-ए-अजीब ऐ तमद्दुन के नक़ीब! तेरी सूरत है मुहीब! ज़ेहन-ए-इंसानी का तूफ़ान खड़ा है गोया...
ख़ुदा ने अलाव जलाया हुआ है उसे कुछ दिखाई नहीं दे रहा है हर इक सम्त उस के ख़ला ही ख़ला है सिमटते हुए दिल में वो सोचता है...
ग़ुस्ल-ख़ाने में वो कहती हैं हमें चीनी की ईंटें ही पसंद आती हैं चीनी की ईंटों पे वो कहती हैं छींटा जो पड़े तो पल में एक इक बूँद बहुत जल्द फिसल जाती है कोई पूछे कि भला बूँदों के यूँ जल्द फिसल जाने में...
तुम्हें मालूम है तैमूर की फ़ौजें जिस वक़्त अपने दुश्मन पे बढ़ा करती थीं औरतें पीछे रहा करती थीं और जो आलिम थे फ़ाज़िल थे उन इंसानों का जर्गा सब के...
रसीले जराएम की ख़ुश्बू मिरे ज़ेहन में आ रही है रसीले जराएम की ख़ुश्बू मुझे हद्द-ए-इदराक से दूर ले जा रही है...
यहाँ इन सिलवटों पर हाथ रख दूँ ये लहरें हैं बही जाती हैं और मुझ को बहाती हैं ये मौज-ए-बादा हैं साग़र की ख़्वाबीदा-फ़ज़ा दिल में अचानक जाग उठती है...
मैं जिंसी खेल को सिर्फ़ इक तन-आसानी समझता हूँ ज़रिया और है माबूद से मिलने का दुनिया में तख़य्युल का बड़ा सागर तसव्वुर के हसीं झोंके लिए आते हैं बारिश में तमन्नाएँ इबादत की...
मैं कहता हूँ तुम से अगर शाम को भूल कर भी किसी ने कभी कोई धुँदला सितारा न देखा तो इस पर तअ'ज्जुब नहीं है न होगा अज़ल से इसी ढब की पाबंद है शाम की ज़ाहिरा बे-ज़रर शोख़ नागिन उभरते हुए और लचकते हुए और मचलते हुए कहती जाती है आओ मुझे देखो मैं ने...
सिमट कर किस लिए नुक़्ता नहीं बनती ज़मीं कह दो ये फैला आसमाँ उस वक़्त क्यूँ दिल को लुभाता था हर इक सम्त अब अनोखे लोग हैं और उन की बातें हैं कोई दिल से फिसल जाती कोई सीने में चुभ जाती...
एक ही पल के लिए बैठ के फिर उठ बैठी आँख ने सिर्फ़ ये देखा कि नशिस्ता बुत है ये बसारत को न थी ताब कि वो देख सके कैसे तलवार चली, कैसे ज़मीं का सीना...
अंधेरे कमरे में बैठा हूँ कि भूली-भटकी कोई किरन आ के देख पाए मगर सदा से अंधेरे कमरे की रस्म है कोई भी किरन आ के देख पाए भला ये क्यूँ हो...
ये जी चाहता है कि तुम एक नन्ही सी लड़की हो और हम तुम्हें गोद में ले के अपनी बिठा लें यूँही चीख़ो चिल्लाओ हँस दो यूँही हाथ उठाओ हवा में हिलाओ हिला कर गिरा दो कभी ऐसे जैसे कोई बात कहने लगी हो कभी ऐसे जैसे न बोलेंगे तुम से...
बहू कहे ये बुढ़िया मेरी जान की लागू बन के रहेगी सास कहे गज़-भर की ज़बाँ है अपनी मुँह आई ही कहेगी बहू कहे जब देखो जब ही ख़्वाही नख़्वाही बात बढ़ाना सास पुकारे ऐ मिरे अल्लाह तौबा भली अब तू ही बचाना...
बस देखा और फिर भूल गए जब हुस्न निगाहों में आया मन-सागर में तूफ़ान उठा तूफ़ान को चंचल देख डरी आकाश की गँगा दूध-भरी...
हवा के झोंके इधर जो आएँ तो उन से कहना यहाँ कोई ऐसी शय नहीं जिसे वो ले जाएँ साथ अपने यहाँ कोई ऐसी शय नहीं जिसे कोई देख कर ये सोचे कि ये हमारे भी पास होती...
सब रात मिरी सपनों में गुज़र जाती है और मैं सोता हूँ फिर सुब्ह की देवी आती है अपने बिस्तर से उठता हूँ मुँह धोता हूँ लाया था कल जो डबल-रोटी...
ज़िंदगी महबूब है फिर भी दुआएँ मौत की माँगता है दिल मिरा दिन रात क्यूँ क़िस्मत-ए-ग़म-गीं के होंटों पर कभी आ नहीं सकती ख़ुशी की बात क्यूँ...
ज़िंदगी एक अज़िय्यत है मुझे तुझ से मिलने की ज़रूरत है मुझे दिल में हर लहज़ा है सिर्फ़ एक ख़याल तुझ से किस दर्जा मोहब्बत है मुझे...
जैसे होती आई है वैसे बसर हो जाएगी ज़िंदगी अब मुख़्तसर से मुख़्तसर हो जाएगी गेसू-ए-अक्स-ए-शब-ए-फ़ुर्क़त परेशाँ अब भी है हम भी तो देखें कि यूँ क्यूँकर सहर हो जाएगी...
एक आया गया दूसरा आएगा देर से देखता हूँ यूँही रात उस की गुज़र जाएगी मैं खड़ा हूँ यहाँ किस लिए मुझ को क्या काम है याद आता नहीं याद भी टिमटिमाता हुआ इक दिया बन गई जिस की रुकती हुई और झिझकती हुई हर किरन बे-सदा क़हक़हा है मगर मेरे कानों ने कैसे उसे सुन लिया एक आँधी चली चल के मिट...
दीदा-ए-अश्क-बार है अपना और दिल बे-क़रार है अपना रश्क-ए-सहरा है घर की वीरानी यही रंग-ए-बहार है अपना...
नगरी नगरी फिरा मुसाफ़िर घर का रस्ता भूल गया क्या है तेरा क्या है मेरा अपना पराया भूल गया क्या भूला कैसे भूला क्यूँ पूछते हो बस यूँ समझो कारन दोश नहीं है कोई भूला भाला भूल गया...
'मीर' मिले थे 'मीरा-जी' से बातों से हम जान गए फ़ैज़ का चश्मा जारी है हिफ़्ज़ उन का भी दीवान करें...
गुनाहों से नश्व-ओ-नुमा पा गया दिल दर-ए-पुख़्ता-कारी पे पहुँचा गया दिल अगर ज़िंदगी मुख़्तसर थी तो फिर क्या इसी में बहुत ऐश करता गया दिल...
रात अँधेरी बन है सूना कोई नहीं है साथ पवन झकोले पेड़ हिलाएँ थर-थर काँपें पात दिल में डर का तीर चुभा है सीने पर है हाथ रह रह कर सोचूँ यूँ कैसे पूरी होगी रात...
रात के अक्स-ए-तख़य्युल से मुलाक़ात हो जिस का मक़्सूद कभी दरवाज़े से आता है कभी खिड़की से और हर बार नए भेस में दर आता है उस को इक शख़्स समझना तो मुनासिब ही नहीं...
ढब देखे तो हम ने जाना दिल में धुन भी समाई है 'मीरा-जी' दाना तो नहीं है आशिक़ है सौदाई है सुब्ह सवेरे कौन सी सूरत फुलवारी में आई है डाली डाली झूम उठी है कली कली लहराई है...
हँसो तो साथ हँसेंगी दुनिया बैठ अकेले रोना होगा चुपके चुपके बहा कर आँसू दिल के दुख को धोना होगा बैरन रीत बड़ी दुनिया की आँख से जो भी टपका मोती पलकों ही से उठाना होगा पलकों ही से पिरोना होगा...
क़दम क़दम पर जनाज़े रक्खे हुए हैं इन को उठाओ जाओ ये देखते क्या हो काम मेरा नहीं तुम्हारा ये काम है आज और कल का तुम आज में महव हो के शायद ये सोचते हो न बीता कल और न आने वाला तुम्हारा कल है...