नगरी नगरी फिरा मुसाफ़िर घर का रस्ता भूल गया
क्या है तेरा क्या है मेरा अपना पराया भूल गया
क्या भूला कैसे भूला क्यूँ पूछते हो बस यूँ समझो
कारन दोश नहीं है कोई भूला भाला भूल गया...
रात अँधेरी बन है सूना कोई नहीं है साथ
पवन झकोले पेड़ हिलाएँ थर-थर काँपें पात
दिल में डर का तीर चुभा है सीने पर है हाथ
रह रह कर सोचूँ यूँ कैसे पूरी होगी रात...
रात के अक्स-ए-तख़य्युल से मुलाक़ात हो जिस का मक़्सूद
कभी दरवाज़े से आता है कभी खिड़की से
और हर बार नए भेस में दर आता है
उस को इक शख़्स समझना तो मुनासिब ही नहीं...
ढब देखे तो हम ने जाना दिल में धुन भी समाई है
'मीरा-जी' दाना तो नहीं है आशिक़ है सौदाई है
सुब्ह सवेरे कौन सी सूरत फुलवारी में आई है
डाली डाली झूम उठी है कली कली लहराई है...
हँसो तो साथ हँसेंगी दुनिया बैठ अकेले रोना होगा
चुपके चुपके बहा कर आँसू दिल के दुख को धोना होगा
बैरन रीत बड़ी दुनिया की आँख से जो भी टपका मोती
पलकों ही से उठाना होगा पलकों ही से पिरोना होगा...
क़दम क़दम पर जनाज़े रक्खे हुए हैं इन को उठाओ जाओ
ये देखते क्या हो काम मेरा नहीं तुम्हारा ये काम है आज और कल का
तुम आज में महव हो के शायद ये सोचते हो
न बीता कल और न आने वाला तुम्हारा कल है...