उस को जुदा हुए भी ज़माना बहुत हुआ अब क्या कहें ये क़िस्सा पुराना बहुत हुआ ढलती न थी किसी भी जतन से शब-ए-फ़िराक़ ऐ मर्ग-ए-ना-गहाँ तिरा आना बहुत हुआ...
वहशतें बढ़ती गईं हिज्र के आज़ार के साथ अब तो हम बात भी करते नहीं ग़म-ख़्वार के साथ हम ने इक उम्र बसर की है ग़म-ए-यार के साथ 'मीर' दो दिन न जिए हिज्र के आज़ार के साथ...
उस का क्या है तुम न सही तो चाहने वाले और बहुत तर्क-ए-मोहब्बत करने वालो तुम तन्हा रह जाओगे...
हुई है शाम तो आँखों में बस गया फिर तू कहाँ गया है मिरे शहर के मुसाफ़िर तू मिरी मिसाल कि इक नख़्ल-ए-ख़ुश्क-ए-सहरा हूँ तिरा ख़याल कि शाख़-ए-चमन का ताइर तू...
तड़प उठूँ भी तो ज़ालिम तिरी दुहाई न दूँ मैं ज़ख़्म ज़ख़्म हूँ फिर भी तुझे दिखाई न दूँ तिरे बदन में धड़कने लगा हूँ दिल की तरह ये और बात कि अब भी तुझे सुनाई न दूँ...
तुझ से बिछड़ कर भी ज़िंदा था मर मर कर ये ज़हर पिया है चुप रहना आसान नहीं था बरसों दिल का ख़ून किया है...
ग़ैरत-ए-इश्क़ सलामत थी अना ज़िंदा थी वो भी दिन थे कि रह-ओ-रस्म-ए-वफ़ा ज़िंदा थी क़ैस को दोश न दो रखियो न फ़रहाद को नाम इन्ही लोगों से मोहब्बत की अदा ज़िंदा थी...
ये मैं भी क्या हूँ उसे भूल कर उसी का रहा कि जिस के साथ न था हम-सफ़र उसी का रहा वो बुत कि दुश्मन-ए-दीं था ब-क़ौल नासेह के सवाल-ए-सज्दा जब आया तो दर उसी का रहा...
मिरे ग़नीम ने मुझ को पयाम भेजा है कि हल्क़ा-ज़न हैं मिरे गिर्द लश्करी उस के फ़सील-ए-शहर के हर बुर्ज हर मनारे पर कमाँ-ब-दस्त सितादा हैं अस्करी उस के...
न मंज़िलों को न हम रहगुज़र को देखते हैं अजब सफ़र है कि बस हम-सफ़र को देखते हैं न पूछ जब वो गुज़रता है बे-नियाज़ी से तो किस मलाल से हम नामा-बर को देखते हैं...
क़ुर्बत भी नहीं दिल से उतर भी नहीं जाता वो शख़्स कोई फ़ैसला कर भी नहीं जाता आँखें हैं कि ख़ाली नहीं रहती हैं लहू से और ज़ख़्म-ए-जुदाई है कि भर भी नहीं जाता...
इतना सन्नाटा कि जैसे हो सुकूत-ए-सहरा ऐसी तारीकी कि आँखों ने दुहाई दी है जाने ज़िंदाँ से उधर कौन से मंज़र होंगे मुझ को दीवार ही दीवार दिखाई दी है...
जब यार ने रख़्त-ए-सफ़र बाँधा कब ज़ब्त का पारा उस दिन था हर दर्द ने दिल को सहलाया क्या हाल हमारा उस दिन था जब ख़्वाब हुईं उस की आँखें जब धुँद हुआ उस का चेहरा हर अश्क सितारा उस शब था हर ज़ख़्म अँगारा उस दिन था...
सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते जाते वर्ना इतने तो मरासिम थे कि आते जाते शिकवा-ए-ज़ुल्मत-ए-शब से तो कहीं बेहतर था अपने हिस्से की कोई शम्अ जलाते जाते...
मयूरका के साहिलों पे किस क़दर गुलाब थे कि ख़ुशबुएँ थी बे-तरह कि रंग बे-हिसाब थे तुनुक-लिबासियाँ शनावरों की थीं क़यामतें तमाम सीम-तन शरीक-ए-जश्न-ए-शहर-ए-आब थे...
जो भी दरून-ए-दिल है वो बाहर न आएगा अब आगही का ज़हर ज़बाँ पर न आएगा अब के बिछड़ के उस को निदामत थी इस क़दर जी चाहता भी हो तो पलट कर न आएगा...
जो क़ुर्बतों के नशे थे वो अब उतरने लगे हवा चली है तो झोंके उदास करने लगे गई रुतों का तअल्लुक़ भी जान लेवा था बहुत से फूल नए मौसमों में मरने लगे...
अब शौक़ से कि जाँ से गुज़र जाना चाहिए बोल ऐ हवा-ए-शहर किधर जाना चाहिए कब तक इसी को आख़िरी मंज़िल कहेंगे हम कू-ए-मुराद से भी उधर जाना चाहिए...
ग़ुरूर-ए-जाँ को मिरे यार बेच देते हैं क़बा की हिर्स में दस्तार बेच देते हैं ये लोग क्या हैं कि दो-चार ख़्वाहिशों के लिए तमाम उम्र का पिंदार बेच देते हैं...
ख़ामोश हो क्यूँ दाद-ए-जफ़ा क्यूँ नहीं देते बिस्मिल हो तो क़ातिल को दुआ क्यूँ नहीं देते वहशत का सबब रौज़न-ए-ज़िंदाँ तो नहीं है मेहर ओ मह ओ अंजुम को बुझा क्यूँ नहीं देते...
कहा था किस ने कि अहद-ए-वफ़ा करो उस से जो यूँ किया है तो फिर क्यूँ गिला करो उस से नसीब फिर कोई तक़रीब-ए-क़़ुर्ब हो कि न हो जो दिल में हों वही बातें कहा करो उस से...
हर एक बात न क्यूँ ज़हर सी हमारी लगे कि हम को दस्त-ए-ज़माना से ज़ख़्म कारी लगे उदासियाँ हों मुसलसल तो दिल नहीं रोता कभी कभी हो तो ये कैफ़ियत भी प्यारी लगे...
हम तो ख़ुश थे कि चलो दिल का जुनूँ कुछ कम है अब जो आराम बहुत है तो सुकूँ कुछ कम है रंग-ए-गिर्या ने दिखाई नहीं अगली सी बहार अब के लगता है कि आमेज़िश-ए-ख़ूँ कुछ कम है...