इस अदा से वो जफ़ा करते हैं कोई जाने कि वफ़ा करते हैं यूँ वफ़ा अहद-ए-वफ़ा करते हैं आप क्या कहते हैं क्या करते हैं...
अब वो ये कह रहे हैं मिरी मान जाइए अल्लाह तेरी शान के क़ुर्बान जाइए बिगड़े हुए मिज़ाज को पहचान जाइए सीधी तरह न मानिएगा मान जाइए...
काबे की है हवस कभी कू-ए-बुताँ की है मुझ को ख़बर नहीं मिरी मिट्टी कहाँ की है सुन के मिरा फ़साना उन्हें लुत्फ़ आ गया सुनता हूँ अब कि रोज़ तलब क़िस्सा-ख़्वाँ की है...
सितम ही करना जफ़ा ही करना निगाह-ए-उल्फ़त कभी न करना तुम्हें क़सम है हमारे सर की हमारे हक़ में कमी न करना...
पयामी कामयाब आए न आए ख़ुदा जाने जवाब आए न आए तिरे ग़मज़ों को अपने काम से काम किसी के दिल को ताब आए न आए...
पुकारती है ख़मोशी मिरी फ़ुग़ाँ की तरह निगाहें कहती हैं सब राज़-ए-दिल ज़बाँ की तरह बिगड़ गई है यहाँ बे-तरह जहाँ की तरह कहाँ की वज़्अ कहाँ की अदा कहाँ की तरह...
मिलाते हो उसी को ख़ाक में जो दिल से मिलता है मिरी जाँ चाहने वाला बड़ी मुश्किल से मिलता है कहीं है ईद की शादी कहीं मातम है मक़्तल में कोई क़ातिल से मिलता है कोई बिस्मिल से मिलता है...
खुलता नहीं है राज़ हमारे बयान से लेते हैं दिल का काम हम अपनी ज़बान से क्या लज़्ज़त-ए-विसाल अदा हो बयान से सब हर्फ़ चिपके जाते हैं मेरी ज़बान से...
दिल मुब्तला-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार ही रहा मरना फ़िराक़-ए-यार में दुश्वार ही रहा हर दम ये शौक़ था उसे क़ुर्बान कीजिए मैं वस्ल में भी जान से बे-ज़ार ही रहा...
मुझ सा न दे ज़माने को परवरदिगार दिल आशुफ़्ता दिल फ़रेफ़्ता दिल बे-क़रार दिल हर बार माँगती हैं नया चश्म-ए-यार दिल इक दिल के किस तरह से बनाऊँ हज़ार दिल...
होश आते ही हसीनों को क़यामत आई आँख में फ़ित्नागरी दिल में शरारत आई क्या तसव्वुर है निहायत मुझे हैरत आई आइने में भी नज़र तेरी ही सूरत आई...
दिल को क्या हो गया ख़ुदा जाने क्यूँ है ऐसा उदास क्या जाने अपने ग़म में भी उस को सरफ़ा है न खिला जाने वो न खा जाने...
कहीं है ईद की शादी कहीं मातम है मक़्तल में कोई क़ातिल से मिलता है कोई बिस्मिल से मिलता है...
रंज की जब गुफ़्तुगू होने लगी आप से तुम तुम से तू होने लगी चाहिए पैग़ाम-बर दोनों तरफ़ लुत्फ़ क्या जब दू-ब-दू होने लगी...
जो हो सकता है उस से वो किसी से हो नहीं सकता मगर देखो तो फिर कुछ आदमी से हो नहीं सकता मोहब्बत में करे क्या कुछ किसी से हो नहीं सकता मिरा मरना भी तो मेरी ख़ुशी से हो नहीं सकता...
ये बात बात में क्या नाज़ुकी निकलती है दबी दबी तिरे लब से हँसी निकलती है ठहर ठहर के जला दिल को एक बार न फूँक कि इस में बू-ए-मोहब्बत अभी निकलती है...
ग़ज़ब किया तिरे वअ'दे पे ए'तिबार किया तमाम रात क़यामत का इंतिज़ार किया किसी तरह जो न उस बुत ने ए'तिबार किया मिरी वफ़ा ने मुझे ख़ूब शर्मसार किया...