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लीजिए सुनिए अब अफ़्साना-ए-फ़ुर्क़त मुझ से आप ने याद दिलाया तो मुझे याद आया...

लज़्ज़त-ए-इश्क़ इलाही मिट जाए दर्द अरमान हुआ जाता है...

इस अदा से वो जफ़ा करते हैं कोई जाने कि वफ़ा करते हैं यूँ वफ़ा अहद-ए-वफ़ा करते हैं आप क्या कहते हैं क्या करते हैं...

शब-ए-वस्ल की क्या कहूँ दास्ताँ ज़बाँ थक गई गुफ़्तुगू रह गई...

हमारी तरफ़ अब वो कम देखते हैं वो नज़रें नहीं जिन को हम देखते हैं...

जिस में लाखों बरस की हूरें हों ऐसी जन्नत को क्या करे कोई...

जल्वे मिरी निगाह में कौन-ओ-मकाँ के हैं मुझ से कहाँ छुपेंगे वो ऐसे कहाँ के हैं...

अब वो ये कह रहे हैं मिरी मान जाइए अल्लाह तेरी शान के क़ुर्बान जाइए बिगड़े हुए मिज़ाज को पहचान जाइए सीधी तरह न मानिएगा मान जाइए...

काबे की है हवस कभी कू-ए-बुताँ की है मुझ को ख़बर नहीं मिरी मिट्टी कहाँ की है सुन के मिरा फ़साना उन्हें लुत्फ़ आ गया सुनता हूँ अब कि रोज़ तलब क़िस्सा-ख़्वाँ की है...

दी मुअज़्ज़िन ने शब-ए-वस्ल अज़ाँ पिछले पहर हाए कम्बख़्त को किस वक़्त ख़ुदा याद आया...

सितम ही करना जफ़ा ही करना निगाह-ए-उल्फ़त कभी न करना तुम्हें क़सम है हमारे सर की हमारे हक़ में कमी न करना...

पयामी कामयाब आए न आए ख़ुदा जाने जवाब आए न आए तिरे ग़मज़ों को अपने काम से काम किसी के दिल को ताब आए न आए...

समझो पत्थर की तुम लकीर उसे जो हमारी ज़बान से निकला...

पुकारती है ख़मोशी मिरी फ़ुग़ाँ की तरह निगाहें कहती हैं सब राज़-ए-दिल ज़बाँ की तरह बिगड़ गई है यहाँ बे-तरह जहाँ की तरह कहाँ की वज़्अ कहाँ की अदा कहाँ की तरह...

ईद है क़त्ल मिरा अहल-ए-तमाशा के लिए सब गले मिलने लगे जब कि वो जल्लाद आया...

ले चला जान मिरी रूठ के जाना तेरा ऐसे आने से तो बेहतर था न आना तेरा...

लुत्फ़-ए-मय तुझ से क्या कहूँ ज़ाहिद हाए कम-बख़्त तू ने पी ही नहीं...

ठोकर भी राह-ए-इश्क़ में खानी ज़रूर है चलता नहीं हूँ राह को हमवार देख कर...

मिलाते हो उसी को ख़ाक में जो दिल से मिलता है मिरी जाँ चाहने वाला बड़ी मुश्किल से मिलता है कहीं है ईद की शादी कहीं मातम है मक़्तल में कोई क़ातिल से मिलता है कोई बिस्मिल से मिलता है...

खुलता नहीं है राज़ हमारे बयान से लेते हैं दिल का काम हम अपनी ज़बान से क्या लज़्ज़त-ए-विसाल अदा हो बयान से सब हर्फ़ चिपके जाते हैं मेरी ज़बान से...

ऐ दाग़ अपनी वज़्अ' हमेशा यही रही कोई खिंचा खिंचे कोई हम से मिला मिले...

दिल मुब्तला-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार ही रहा मरना फ़िराक़-ए-यार में दुश्वार ही रहा हर दम ये शौक़ था उसे क़ुर्बान कीजिए मैं वस्ल में भी जान से बे-ज़ार ही रहा...

दिल में समा गई हैं क़यामत की शोख़ियाँ दो-चार दिन रहा था किसी की निगाह में...

मुझ सा न दे ज़माने को परवरदिगार दिल आशुफ़्ता दिल फ़रेफ़्ता दिल बे-क़रार दिल हर बार माँगती हैं नया चश्म-ए-यार दिल इक दिल के किस तरह से बनाऊँ हज़ार दिल...

होश आते ही हसीनों को क़यामत आई आँख में फ़ित्नागरी दिल में शरारत आई क्या तसव्वुर है निहायत मुझे हैरत आई आइने में भी नज़र तेरी ही सूरत आई...

दिल को क्या हो गया ख़ुदा जाने क्यूँ है ऐसा उदास क्या जाने अपने ग़म में भी उस को सरफ़ा है न खिला जाने वो न खा जाने...

हसरतें ले गए इस बज़्म से चलने वाले हाथ मलते ही उठे इत्र के मलने वाले...

तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था न था रक़ीब तो आख़िर वो नाम किस का था...

तबीअ'त कोई दिन में भर जाएगी चढ़ी है ये नद्दी उतर जाएगी...

कहीं है ईद की शादी कहीं मातम है मक़्तल में कोई क़ातिल से मिलता है कोई बिस्मिल से मिलता है...

बे-तलब जो मिला मिला मुझ को बे-ग़रज़ जो दिया दिया तू ने...

जिस ख़त पे ये लगाई उसी का मिला जवाब इक मोहर मेरे पास है दुश्मन के नाम की...

रंज की जब गुफ़्तुगू होने लगी आप से तुम तुम से तू होने लगी चाहिए पैग़ाम-बर दोनों तरफ़ लुत्फ़ क्या जब दू-ब-दू होने लगी...

जो हो सकता है उस से वो किसी से हो नहीं सकता मगर देखो तो फिर कुछ आदमी से हो नहीं सकता मोहब्बत में करे क्या कुछ किसी से हो नहीं सकता मिरा मरना भी तो मेरी ख़ुशी से हो नहीं सकता...

दी शब-ए-वस्ल मोअज़्ज़िन ने अज़ाँ पिछली रात हाए कम-बख़्त को किस वक़्त ख़ुदा याद आया...

फिर गया जब से कोई आ के हमारे दर तक घर के बाहर ही पड़े रहते हैं घर छोड़ दिया...

ये बात बात में क्या नाज़ुकी निकलती है दबी दबी तिरे लब से हँसी निकलती है ठहर ठहर के जला दिल को एक बार न फूँक कि इस में बू-ए-मोहब्बत अभी निकलती है...

पूछिए मय-कशों से लुत्फ़-ए-शराब ये मज़ा पाक-बाज़ क्या जानें...

ग़ज़ब किया तिरे वअ'दे पे ए'तिबार किया तमाम रात क़यामत का इंतिज़ार किया किसी तरह जो न उस बुत ने ए'तिबार किया मिरी वफ़ा ने मुझे ख़ूब शर्मसार किया...

न जाना कि दुनिया से जाता है कोई बहुत देर की मेहरबाँ आते आते...