हम आप ही को अपना मक़्सूद जानते हैं अपने सिवाए किस को मौजूद जानते हैं इज्ज़-ओ-नियाज़ अपना अपनी तरफ़ है सारा इस मुश्त-ए-ख़ाक को हम मसजूद जानते हैं...
जब हम-कलाम हम से होता है पान खा कर किस रंग से करे है बातें चबा चबा कर थी जुम्लातन लताफ़त आलम में जाँ के हम तो मिट्टी में अट गए हैं इस ख़ाक-दाँ में आ कर...
जफ़ाएँ देख लियाँ बेवफ़ाइयाँ देखीं भला हुआ कि तिरी सब बुराइयाँ देखीं तिरी गली से सदा ऐ कशंदा-ए-आलम हज़ारों आती हुई चारपाइयाँ देखीं...
जोशिश-ए-अश्क से हूँ आठ पहर पानी में गरचे होते हैं बहुत ख़ौफ़-ओ-ख़तर पानी में ज़ब्त-ए-गिर्या ने जलाया है दरूना सारा दिल अचम्भा है कि है सोख़्ता-तर पानी में...
गुल को महबूब हम-क़्यास किया फ़र्क़ निकला बहुत जो बास किया दिल ने हम को मिसाल-ए-आईना एक आलम का रू-शनास किया...
दिल गए आफ़त आई जानों पर ये फ़साना रहा ज़बानों पर इश्क़ में होश ओ सब्र सुनते थे रख गए हाथ सो तो कानों पर...
वाँ वो तो घर से अपने पी कर शराब निकला याँ शर्म से अरक़ में डूब आफ़्ताब निकला आया जो वाक़िए में दरपेश आलम-ए-मर्ग ये जागना हमारा देखा तो ख़्वाब निकला...
जो कहो तुम सो है बजा साहब हम बुरे ही सही भला साहब सादा ज़ेहनी में नुक्ता-चीं थे तुम अब तो हैं हर्फ़ आश्ना साहब...
पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है लगने न दे बस हो तो उस के गौहर-ए-गोश को बाले तक उस को फ़लक चश्म-मह-ओ-ख़ुर की पुतली का तारा जाने है...
दिल बहम पहुँचा बदन में तब से सारा तन जला आ पड़ी ये ऐसी चिंगारी कि पैराहन जला सरकशी ही है जो दिखलाती है इस मज्लिस में दाग़ हो सके तो शम्अ साँ दीजे रग-ए-गर्दन जला...
दामन वसीअ था तो काहे को चश्म तरसा रहमत ख़ुदा की तुझ को ऐ अब्र ज़ोर बरसा शायद कबाब कर कर खाया कबूतर उन ने नामा उड़ा फिरे है उस की गली में पर सा...
मानिंद-ए-शम्मा-मजलिस शब अश्क-बार पाया अल-क़िस्सा 'मीर' को हम बे-इख़्तियार पाया अहवाल ख़ुश उन्हों का हम-बज़्म हैं जो तेरे अफ़्सोस है कि हम ने वाँ का न बार पाया...
मर मर गए नज़र कर उस के बरहना तन में कपड़े उतारे उन ने सर खींचे हम कफ़न में गुल फूल से कब उस बिन लगती हैं अपनी आँखें लाई बहार हम को ज़ोर-आवरी चमन में...
तेरा रुख़-ए-मुख़त्तत क़ुरआन है हमारा बोसा भी लें तो क्या है ईमान है हमारा गर है ये बे-क़रारी तो रह चुका बग़ल में दो रोज़ दिल हमारा मेहमान है हमारा...
जब नाम तिरा लीजिए तब चश्म भर आवे इस ज़िंदगी करने को कहाँ से जिगर आवे तलवार का भी मारा ख़ुदा रक्खे है ज़ालिम ये तो हो कोई गोर-ए-ग़रीबाँ में दर आवे...
कहते हो इत्तिहाद है हम को हाँ कहो ए'तिमाद है हम को शौक़ ही शौक़ है नहीं मालूम इस से क्या दिल निहाद है हम को...
आरज़ूएँ हज़ार रखते हैं तो भी हम दिल को मार रखते हैं बर्क़ कम-हौसला है हम भी तो दिल को बे-क़रार रखते हैं...
उम्र भर हम रहे शराबी से दिल-ए-पुर-ख़ूँ की इक गुलाबी से जी ढहा जाए है सहर से आह रात गुज़रेगी किस ख़राबी से...
ता-ब मक़्दूर इंतिज़ार किया दिल ने अब ज़ोर बे-क़रार किया दुश्मनी हम से की ज़माने ने कि जफ़ाकार तुझ सा यार किया...
कुछ तो कह वस्ल की फिर रात चली जाती है दिन गुज़र जाएँ हैं पर बात चली जाती है रह गए गाह तबस्सुम पे गहे बात ही पर बारे ऐ हम-नशीं औक़ात चली जाती है...
देख तो दिल कि जाँ से उठता है ये धुआँ सा कहाँ से उठता है गोर किस दिलजले की है ये फ़लक शोला इक सुब्ह याँ से उठता है...