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ले दे के अपने पास फ़क़त इक नज़र तो है क्यूँ देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम...

कोई तो ऐसा घर होता जहाँ से प्यार मिल जाता वही बेगाने चेहरे हैं जहाँ जाएँ जिधर जाएँ...

आओ कि आज ग़ौर करें इस सवाल पर देखे थे हम ने जो वो हसीं ख़्वाब क्या हुए दौलत बढ़ी तो मुल्क में अफ़्लास क्यूँ बढ़ा ख़ुश-हाली-ए-अवाम के अस्बाब क्या हुए...

माना कि इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके कुछ ख़ार कम तो कर गए गुज़रे जिधर से हम...

अभी न छेड़ मोहब्बत के गीत ऐ मुतरिब अभी हयात का माहौल ख़ुश-गवार नहीं...

तुझे भुला देंगे अपने दिल से ये फ़ैसला तो किया है लेकिन न दिल को मालूम है न हम को जिएँगे कैसे तुझे भुला के...

मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया...

दबेगी कब तलक आवाज़-ए-आदम हम भी देखेंगे रुकेंगे कब तलक जज़्बात-ए-बरहम हम भी देखेंगे चलो यूँही सही ये जौर-ए-पैहम हम भी देखेंगे दर-ए-ज़िंदाँ से देखें या उरूज-ए-दार से देखें...

ख़ून अपना हो या पराया हो नस्ल-ए-आदम का ख़ून है आख़िर जंग मशरिक़ में हो कि मग़रिब में अम्न-ए-आलम का ख़ून है आख़िर...

जब कभी उन की तवज्जोह में कमी पाई गई अज़-सर-ए-नौ दास्तान-ए-शौक़ दोहराई गई बिक गए जब तेरे लब फिर तुझ को क्या शिकवा अगर ज़िंदगानी बादा ओ साग़र से बहलाई गई...

अक़ाएद वहम हैं मज़हब ख़याल-ए-ख़ाम है साक़ी अज़ल से ज़ेहन-ए-इंसाँ बस्ता-ए-औहाम है साक़ी हक़ीक़त-आश्नाई अस्ल में गुम-कर्दा राही है उरूस-ए-आगही परवुर्दा-ए-इब्हाम है साक़ी...

मोहब्बत तर्क की मैं ने गरेबाँ सी लिया मैं ने ज़माने अब तो ख़ुश हो ज़हर ये भी पी लिया मैं ने...

अब तक मेरे गीतों में उम्मीद भी थी पसपाई भी मौत के क़दमों की आहट भी जीवन की अंगड़ाई भी मुस्तक़बिल की किरनें भी थीं हाल की बोझल ज़ुल्मत भी तूफ़ानों का शोर भी था और ख़्वाबों की शहनाई भी...

हमीं से रंग-ए-गुलिस्ताँ हमीं से रंग-ए-बहार हमीं को नज़्म-ए-गुलिस्ताँ पे इख़्तियार नहीं...

तुम्हें उदास सा पाता हूँ मैं कई दिन से न जाने कौन से सदमे उठा रही हो तुम वो शोख़ियाँ वो तबस्सुम वो क़हक़हे न रहे हर एक चीज़ को हसरत से देखती हो तुम...

कभी कभी मिरे दिल में ख़याल आता है कि ज़िंदगी तिरी ज़ुल्फ़ों की नर्म छाँव में गुज़रने पाती तो शादाब हो भी सकती थी ये तीरगी जो मिरी ज़ीस्त का मुक़द्दर है...

तू मुझे छोड़ के ठुकरा के भी जा सकती है तेरे हाथों में मिरे हाथ हैं ज़ंजीर नहीं...

हर क़दम मरहला-दार-ओ-सलीब आज भी है जो कभी था वही इंसाँ का नसीब आज भी है जगमगाते हैं उफ़ुक़ पर ये सितारे लेकिन रास्ता मंज़िल-ए-हस्ती का मुहीब आज भी है...

चेहरे पे ख़ुशी छा जाती है आँखों में सुरूर आ जाता है जब तुम मुझे अपना कहते हो अपने पे ग़ुरूर आ जाता है तुम हुस्न की ख़ुद इक दुनिया हो शायद ये तुम्हें मालूम नहीं महफ़िल में तुम्हारे आने से हर चीज़ पे नूर आ जाता है...

तरब-ज़ारों पे क्या बीती सनम-ख़ानों पे क्या गुज़री दिल-ए-ज़िंदा तिरे मरहूम अरमानों पे क्या गुज़री ज़मीं ने ख़ून उगला आसमाँ ने आग बरसाई जब इंसानों के दिल बदले तो इंसानों पे क्या गुज़री...

बस अब तो दामन-ए-दिल छोड़ दो बेकार उम्मीदो बहुत दुख सह लिए मैं ने बहुत दिन जी लिया मैं ने...