Page 8 of 15

बुलबुल के कारोबार पे हैं ख़ंदा-हा-ए-गुल कहते हैं जिस को इश्क़ ख़लल है दिमाग़ का...

हर बुल-हवस ने हुस्न-परस्ती शिआ'र की अब आबरू-ए-शेवा-ए-अहल-ए-नज़र गई...

बिसात-ए-इज्ज़ में था एक दिल यक क़तरा ख़ूँ वो भी सो रहता है ब-अंदाज़-ए-चकीदन सर-निगूँ वो भी रहे उस शोख़ से आज़ुर्दा हम चंदे तकल्लुफ़ से तकल्लुफ़ बरतरफ़ था एक अंदाज़-ए-जुनूँ वो भी...

ओहदे से मद्ह-ए-नाज़ के बाहर न आ सका गर इक अदा हो तो उसे अपनी क़ज़ा कहूँ हल्क़े हैं चश्म-हा-ए-कुशादा ब-सू-ए-दिल हर तार-ए-ज़ुल्फ़ को निगह-ए-सुर्मा-सा कहूँ...

पिन्हाँ था दाम-ए-सख़्त क़रीब आशियान के उड़ने न पाए थे कि गिरफ़्तार हम हुए...

अजब नशात से जल्लाद के चले हैं हम आगे कि अपने साए से सर पाँव से है दो क़दम आगे क़ज़ा ने था मुझे चाहा ख़राब-ए-बादा-ए-उल्फ़त फ़क़त ख़राब लिखा बस न चल सका क़लम आगे...

हुजूम-ए-नाला हैरत आजिज़-ए-अर्ज़ यक-अफ़्ग़ँ है ख़मोशी रेशा-ए-सद-नीस्ताँ से ख़स-ब-दंदाँ है तकल्लुफ़-बर-तरफ़ है जाँ-सिताँ-तर लुत्फ़-ए-बद-ख़ूयाँ निगाह-ए-बे-हिजाब-ए-नाज़ तेग़-ए-तेज़-ए-उर्यां है...

मंज़ूर थी ये शक्ल तजल्ली को नूर की क़िस्मत खुली तिरे क़द ओ रुख़ से ज़ुहूर की इक ख़ूँ-चकाँ कफ़न में करोड़ों बनाओ हैं पड़ती है आँख तेरे शहीदों पे हूर की...

क़त्अ कीजे न तअ'ल्लुक़ हम से कुछ नहीं है तो अदावत ही सही...

बे-दर-ओ-दीवार सा इक घर बनाया चाहिए कोई हम-साया न हो और पासबाँ कोई न हो...

कभी नेकी भी उस के जी में गर आ जाए है मुझ से जफ़ाएँ कर के अपनी याद शरमा जाए है मुझ से...

लाज़िम था कि देखो मिरा रस्ता कोई दिन और तन्हा गए क्यूँ अब रहो तन्हा कोई दिन और...

सद जल्वा रू-ब-रू है जो मिज़्गाँ उठाइए ताक़त कहाँ कि दीद का एहसाँ उठाइए है संग पर बरात-ए-मआश-ए-जुनून-ए-इश्क़ यानी हुनूज़ मिन्नत-ए-तिफ़्लाँ उठाइए...

आशिक़ हूँ पे माशूक़-फ़रेबी है मिरा काम मजनूँ को बुरा कहती है लैला मेरे आगे...

पी जिस क़दर मिले शब-ए-महताब में शराब इस बलग़मी-मिज़ाज को गर्मी ही रास है...

खुलता किसी पे क्यूँ मिरे दिल का मोआमला शेरों के इंतिख़ाब ने रुस्वा किया मुझे...

फिर उसी बेवफ़ा पे मरते हैं फिर वही ज़िंदगी हमारी है...

गर न अंदोह-ए-शब-ए-फ़ुर्क़त बयाँ हो जाएगा बे-तकल्लुफ़ दाग़-ए-मह मोहर-ए-दहाँ हो जाएगा ज़ोहरा गर ऐसा ही शाम-ए-हिज्र में होता है आब परतव-ए-महताब सैल-ए-ख़ानुमाँ हो जाएगा...

हो चुकीं 'ग़ालिब' बलाएँ सब तमाम एक मर्ग-ए-ना-गहानी और है...

आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे ऐसा कहाँ से लाऊँ कि तुझ सा कहें जिसे...

ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के हम रहें यूँ तिश्ना-लब पैग़ाम के...

गर ख़ामुशी से फ़ाएदा इख़्फ़ा-ए-हाल है ख़ुश हूँ कि मेरी बात समझनी मुहाल है किस को सुनाऊँ हसरत-ए-इज़हार का गिला दिल फ़र्द-ए-जमा-ओ-ख़र्च ज़बाँ-हा-ए-लाल है...

गिला है शौक़ को दिल में भी तंगी-ए-जा का गुहर में महव हुआ इज़्तिराब दरिया का ये जानता हूँ कि तू और पासुख़-ए-मकतूब मगर सितम-ज़दा हूँ ज़ौक़-ए-ख़ामा-फ़रसा का...

बहुत दिनों में तग़ाफ़ुल ने तेरे पैदा की वो इक निगह कि ब-ज़ाहिर निगाह से कम है...

जब मय-कदा छुटा तो फिर अब क्या जगह की क़ैद मस्जिद हो मदरसा हो कोई ख़ानक़ाह हो...

हम से खुल जाओ ब-वक़्त-ए-मय-परस्ती एक दिन वर्ना हम छेड़ेंगे रख कर उज़्र-ए-मस्ती एक दिन ग़र्रा-ए-औज-ए-बिना-ए-आलम-ए-इमकाँ न हो इस बुलंदी के नसीबों में है पस्ती एक दिन...

मैं ने कहा कि बज़्म-ए-नाज़ चाहिए ग़ैर से तिही सुन के सितम-ज़रीफ़ ने मुझ को उठा दिया कि यूँ...

बर्शिकाल-ए-गिर्या-ए-आशिक़ है देखा चाहिए खिल गई मानिंद-ए-गुल सौ जा से दीवार-ए-चमन उल्फ़त-ए-गुल से ग़लत है दावा-ए-वारस्तगी सर्व है बा-वस्फ़-ए-आज़ादी गिरफ़्तार-ए-चमन...

शब ख़ुमार-ए-शौक़-ए-साक़ी रुस्तख़ेज़-अंदाज़ा था ता-मुहीत-ए-बादा सूरत ख़ाना-ए-ख़म्याज़ा था यक क़दम वहशत से दर्स-ए-दफ़्तर-ए-इम्काँ खुला जादा अजज़ा-ए-दो-आलम दश्त का शीराज़ा था...

बात पर वाँ ज़बान कटती है वो कहें और सुना करे कोई...

न गुल-ए-नग़्मा हूँ न पर्दा-ए-साज़ मैं हूँ अपनी शिकस्त की आवाज़ तू और आराइश-ए-ख़म-ए-काकुल मैं और अंदेशा-हा-ए-दूर-दराज़...

'ग़ालिब'-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन से काम बंद हैं रोइए ज़ार ज़ार क्या कीजिए हाए हाए क्यूँ...

दिया है दिल अगर उस को बशर है क्या कहिए हुआ रक़ीब तो हो नामा-बर है क्या कहिए ये ज़िद कि आज न आवे और आए बिन न रहे क़ज़ा से शिकवा हमें किस क़दर है क्या कहिए...

नज़र लगे न कहीं उन के दस्त-ओ-बाज़ू को ये लोग क्यूँ मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर को देखते हैं...

ख़तर है रिश्ता-ए-उल्फ़त रग-ए-गर्दन न हो जावे ग़ुरूर-ए-दोस्ती आफ़त है तू दुश्मन न हो जावे समझ इस फ़स्ल में कोताही-ए-नश्व-ओ-नुमा 'ग़ालिब' अगर गुल सर्व के क़ामत पे पैराहन न हो जावे...

अदा-ए-ख़ास से 'ग़ालिब' हुआ है नुक्ता-सरा सला-ए-आम है यारान-ए-नुक्ता-दाँ के लिए...

रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी तो किस उमीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है...

करे है क़त्ल लगावट में तेरा रो देना तिरी तरह कोई तेग़-ए-निगह को आब तो दे...

आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए साहब को दिल न देने पे कितना ग़ुरूर था क़ासिद को अपने हाथ से गर्दन न मारिए उस की ख़ता नहीं है ये मेरा क़ुसूर था...

रुख़-ए-निगार से है सोज़-ए-जावेदानी-ए-शम्मअ हुई है आतिश-ए-गुल आब-ए-ज़ि़ंदगानी-ए-शम्मअ ज़बान-ए-अहल-ए-ज़बाँ में है मर्ग ख़ामोशी ये बात बज़्म में रौशन हुई ज़बानी-ए-शम्मअ...