मिलती है ख़ू-ए-यार से नार इल्तिहाब में काफ़िर हूँ गर न मिलती हो राहत अज़ाब में कब से हूँ क्या बताऊँ जहान-ए-ख़राब में शब-हा-ए-हिज्र को भी रखूँ गर हिसाब में...
सरापा रेहन-इश्क़-ओ-ना-गुज़ीर-उल्फ़त-हस्ती इबादत बर्क़ की करता हूँ और अफ़्सोस हासिल का ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ है साक़ी ख़ुमार-ए-तिश्ना-कामी भी जो तू दरिया-ए-मै है तो मैं ख़म्याज़ा हूँ साहिल का...
मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त मैं गया वक़्त नहीं हूँ कि फिर आ भी न सकूँ ज़ोफ़ में ताना-ए-अग़्यार का शिकवा क्या है बात कुछ सर तो नहीं है कि उठा भी न सकूँ...
इश्क़ मुझ को नहीं वहशत ही सही मेरी वहशत तिरी शोहरत ही सही क़त्अ कीजे न तअल्लुक़ हम से कुछ नहीं है तो अदावत ही सही...
हवस को है नशात-ए-कार क्या क्या न हो मरना तो जीने का मज़ा क्या तजाहुल-पेशगी से मुद्दआ क्या कहाँ तक ऐ सरापा नाज़ क्या क्या...