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हवस-ए-गुल के तसव्वुर में भी खटका न रहा अजब आराम दिया बे-पर-ओ-बाली ने मुझे...

महरम नहीं है तू ही नवा-हा-ए-राज़ का याँ वर्ना जो हिजाब है पर्दा है साज़ का रंग-ए-शिकस्ता सुब्ह-ए-बहार-ए-नज़ारा है ये वक़्त है शगुफ़्तन-ए-गुल-हा-ए-नाज़ का...

आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब दिल का क्या रंग करूँ ख़ून-ए-जिगर होते तक...

एक जा हर्फ़-ए-वफ़ा लिक्खा था सो भी मिट गया ज़ाहिरन काग़ज़ तिरे ख़त का गलत-बर-दार है जी जले ज़ौक़-ए-फ़ना की ना-तमामी पर न क्यूँ हम नहीं जलते नफ़स हर चंद आतिश-बार है...

इश्क़ मुझ को नहीं वहशत ही सही मेरी वहशत तिरी शोहरत ही सही...

हुआ है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता वगरना शहर में 'ग़ालिब' की आबरू क्या है...

देख कर दर-पर्दा गर्म-ए-दामन-अफ़्शानी मुझे कर गई वाबस्ता-ए-तन मेरी उर्यानी मुझे बन गया तेग़-ए-निगाह-ए-यार का संग-ए-फ़साँ मर्हबा मैं क्या मुबारक है गिराँ-जानी मुझे...

न हुई गर मिरे मरने से तसल्ली न सही इम्तिहाँ और भी बाक़ी हो तो ये भी न सही ख़ार ख़ार-ए-अलम-ए-हसरत-ए-दीदार तो है शौक़ गुल-चीन-ए-गुलिस्तान-ए-तसल्ली न सही...

जब तक दहान-ए-ज़ख़्म न पैदा करे कोई मुश्किल कि तुझ से राह-ए-सुख़न वा करे कोई आलम ग़ुबार-ए-वहशत-ए-मजनूँ है सर-ब-सर कब तक ख़याल-ए-तुर्रा-ए-लैला करे कोई...

दाइम पड़ा हुआ तिरे दर पर नहीं हूँ मैं ख़ाक ऐसी ज़िंदगी पे कि पत्थर नहीं हूँ मैं क्यूँ गर्दिश-ए-मुदाम से घबरा न जाए दिल इंसान हूँ पियाला ओ साग़र नहीं हूँ मैं...

फ़रियाद की कोई लय नहीं है नाला पाबंद-ए-नय नहीं है क्यूँ बोते हैं बाग़बाँ तोंबे गर बाग़ गदा-ए-मय नहीं है...

की वफ़ा हम से तो ग़ैर इस को जफ़ा कहते हैं होती आई है कि अच्छों को बुरा कहते हैं...

तिरे वादे पर जिए हम तो ये जान झूट जाना कि ख़ुशी से मर न जाते अगर ए'तिबार होता...

क्या तंग हम सितम-ज़दगाँ का जहान है जिस में कि एक बैज़ा-ए-मोर आसमान है है काएनात को हरकत तेरे ज़ौक़ से परतव से आफ़्ताब के ज़र्रे में जान है...

आज हम अपनी परेशानी-ए-ख़ातिर उन से कहने जाते तो हैं पर देखिए क्या कहते हैं...

इश्क़ से तबीअत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया दर्द की दवा पाई दर्द-ए-बे-दवा पाया...

मुँद गईं खोलते ही खोलते आँखें 'ग़ालिब' यार लाए मिरी बालीं पे उसे पर किस वक़्त...

हवस को है नशात-ए-कार क्या क्या न हो मरना तो जीने का मज़ा क्या...

सादिक़ हूँ अपने क़ौल का 'ग़ालिब' ख़ुदा गवाह कहता हूँ सच कि झूट की आदत नहीं मुझे...

दिल-ए-हर-क़तरा है साज़-ए-अनल-बहर हम उस के हैं हमारा पूछना क्या...

वफ़ा कैसी कहाँ का इश्क़ जब सर फोड़ना ठहरा तो फिर ऐ संग-दिल तेरा ही संग-ए-आस्ताँ क्यूँ हो...

हम ने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन ख़ाक हो जाएँगे हम तुम को ख़बर होते तक...

ज़िक्र मेरा ब-बदी भी उसे मंज़ूर नहीं ग़ैर की बात बिगड़ जाए तो कुछ दूर नहीं वादा-ए-सैर-ए-गुलिस्ताँ है ख़ुशा ताले-ए-शौक़ मुज़्दा-ए-क़त्ल मुक़द्दर है जो मज़कूर नहीं...

'ग़ालिब' अपना ये अक़ीदा है ब-क़ौल-ए-'नासिख़' आप बे-बहरा है जो मो'तक़िद-ए-'मीर' नहीं...

क्या फ़र्ज़ है कि सब को मिले एक सा जवाब आओ न हम भी सैर करें कोह-ए-तूर की...

दाइम पड़ा हुआ तिरे दर पर नहीं हूँ मैं ख़ाक ऐसी ज़िंदगी पे कि पत्थर नहीं हूँ मैं...

जब तवक़्क़ो ही उठ गई 'ग़ालिब' क्यूँ किसी का गिला करे कोई...

लब-ए-ख़ुश्क दर-तिश्नगी-मुर्दगाँ का ज़ियारत-कदा हूँ दिल-आज़ुर्दगाँ का हमा ना-उमीदी हमा बद-गुमानी मैं दिल हूँ फ़रेब-ए-वफ़ा-ख़ुर्दगाँ का...

मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए जोश-ए-क़दह से बज़्म चराग़ाँ किए हुए करता हूँ जम्अ फिर जिगर-ए-लख़्त-लख़्त को अर्सा हुआ है दावत-ए-मिज़्गाँ किए हुए...

दाग़-ए-फ़िराक़-ए-सोहबत-ए-शब की जली हुई इक शम्अ रह गई है सो वो भी ख़मोश है...

नाकामी-ए-निगाह है बर्क़-ए-नज़ारा-सोज़ तू वो नहीं कि तुझ को तमाशा करे कोई...

ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता...

हैफ़ उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत 'ग़ालिब' जिस की क़िस्मत में हो आशिक़ का गिरेबाँ होना...

मैं ने मजनूँ पे लड़कपन में 'असद' संग उठाया था कि सर याद आया...

मुज़्दा ऐ ज़ौक़-ए-असीरी कि नज़र आता है दाम-ए-ख़ाली क़फ़स-ए-मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार के पास जिगर-ए-तिश्ना-ए-आज़ार तसल्ली न हुआ जू-ए-ख़ूँ हम ने बहाई बुन-ए-हर ख़ार के पास...

इब्न-ए-मरयम हुआ करे कोई मेरे दुख की दवा करे कोई...

फ़र्दा-ओ-दी का तफ़रक़ा यक बार मिट गया कल तुम गए कि हम पे क़यामत गुज़र गई...

न लुटता दिन को तो कब रात को यूँ बे-ख़बर सोता रहा खटका न चोरी का दुआ देता हूँ रहज़न को...

उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़ वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है...

देखना तक़रीर की लज़्ज़त कि जो उस ने कहा मैं ने ये जाना कि गोया ये भी मेरे दिल में है...