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पूछ न वस्ल का हिसाब हाल है अब बहुत ख़राब रिश्ता-ए-जिस्म-ओ-जाँ के बीच जिस्म हराम हो गया...

तुझ में पड़ा हुआ हूँ हरकत नहीं है मुझ में हालत न पूछियो तू हालत नहीं है मुझ में अब तो नज़र में आ जा बाँहों के घर में आ जा ऐ जान तेरी कोई सूरत नहीं है मुझ में...

ये बहुत ग़म की बात हो शायद अब तो ग़म भी गँवा चुका हूँ मैं...

क्या पूछते हो नाम-ओ-निशान-ए-मुसाफ़िराँ हिन्दोस्ताँ में आए हैं हिन्दोस्तान के थे...

आईनों को ज़ंग लगा अब मैं कैसा लगता हूँ...

तुम्हारा हिज्र मना लूँ अगर इजाज़त हो मैं दिल किसी से लगा लूँ अगर इजाज़त हो...

इक ज़ख़्म भी यारान-ए-बिस्मिल नहीं आने का मक़्तल में पड़े रहिए क़ातिल नहीं आने का अब कूच करो यारो सहरा से कि सुनते हैं सहरा में अब आइंदा महमिल नहीं आने का...

मिल कर तपाक से न हमें कीजिए उदास ख़ातिर न कीजिए कभी हम भी यहाँ के थे...

पड़ी रहने दो इंसानों की लाशें ज़मीं का बोझ हल्का क्यूँ करें हम...

है बिखरने को ये महफ़िल-ए-रंग-ओ-बू तुम कहाँ जाओगे हम कहाँ जाएँगे हर तरफ़ हो रही है यही गुफ़्तुगू तुम कहाँ जाओगे हम कहाँ जाएँगे हर मता-ए-नफ़स नज़्र-ए-आहंग की हम को याराँ हवस थी बहुत रंग की गुल-ज़मीं से उबलने को है अब लहू तुम कहाँ जाओगे हम कहाँ जाएँगे...

हमारे ज़ख़्म-ए-तमन्ना पुराने हो गए हैं कि उस गली में गए अब ज़माने हो गए हैं तुम अपने चाहने वालों की बात मत सुनियो तुम्हारे चाहने वाले दिवाने हो गए हैं...

लाज़िम है अपने आप की इमदाद कुछ करूँ सीने में वो ख़ला है कि ईजाद कुछ करूँ हर लम्हा अपने आप में पाता हूँ कुछ कमी हर लम्हा अपने आप में ईज़ाद कुछ करूँ...

किस से इज़हार-ए-मुद्दआ कीजे आप मिलते नहीं हैं क्या कीजे हो न पाया ये फ़ैसला अब तक आप कीजे तो क्या किया कीजिए...

याद आते हैं मोजज़े अपने और उस के बदन का जादू भी...

ऐ सुब्ह मैं अब कहाँ रहा हूँ ख़्वाबों ही में सर्फ़ हो चुका हूँ...

अब नहीं मिलेंगे हम कूचा-ए-तमन्ना में कूचा-ए-तमन्ना में अब नहीं मिलेंगे हम...

कैसे कहें कि तुझ को भी हम से है वास्ता कोई तू ने तो हम से आज तक कोई गिला नहीं किया...

ये मुझे चैन क्यूँ नहीं पड़ता एक ही शख़्स था जहान में क्या...

मुझे तुम अपनी बाँहों में जकड़ लो और मैं तुम को किसी भी दिल-कुशा जज़्बे से यकसर ना-शनासाना नशात-ए-रंग की सरशारी-ए-हालत से बेगाना मुझे तुम अपनी बाँहों में जकड़ लो और मैं तुम को...

जो गुज़ारी न जा सकी हम से हम ने वो ज़िंदगी गुज़ारी है...

उस से हर-दम मोआ'मला है मगर दरमियाँ कोई सिलसिला ही नहीं...

गाहे गाहे बस अब यही हो गया तुम से मिल कर बहुत ख़ुशी हो क्या मिल रही हो बड़े तपाक के साथ मुझ को यकसर भुला चुकी हो क्या...

कितने ऐश से रहते होंगे कितने इतराते होंगे जाने कैसे लोग वो होंगे जो उस को भाते होंगे शाम हुए ख़ुश-बाश यहाँ के मेरे पास आ जाते हैं मेरे बुझने का नज़्ज़ारा करने आ जाते होंगे...

लम्हे लम्हे की ना-रसाई है ज़िंदगी हालत-ए-जुदाई है मर्द-ए-मैदाँ हूँ अपनी ज़ात का मैं मैं ने सब से शिकस्त खाई है...

सुना है तुम ने अपने आख़िरी लम्हों में समझा था कि तुम मेरी हिफ़ाज़त में हो मेरे बाज़ुओं में हो सुना है बुझते बुझते भी तुम्हारे सर्द ओ मुर्दा लब से एक शो'ला शोला-ए-याक़ूत-फ़ाम ओ रंग ओ उम्मीद-ए-फ़रोग़-ए-ज़िंदगी-आहंग लपका था...

फिर उस गली से अपना गुज़र चाहता है दिल अब उस गली को कौन सी बस्ती से लाऊँ मैं...

एक क़त्ताला चाहिए हम को हम ये एलान-ए-आम कर रहे हैं...

अब तुम कभी न आओगे यानी कभी कभी रुख़्सत करो मुझे कोई वादा किए बग़ैर...

क्या तकल्लुफ़ करें ये कहने में जो भी ख़ुश है हम उस से जलते हैं...

सोचता हूँ कि उस की याद आख़िर अब किसे रात भर जगाती है...

ज़िंदगी एक फ़न है लम्हों को अपने अंदाज़ से गँवाने का...

शब जो हम से हुआ मुआफ़ करो नहीं पी थी बहक गए होंगे...

कोई मुझ तक पहुँच नहीं पाता इतना आसान है पता मेरा...

काम की बात मैं ने की ही नहीं ये मिरा तौर-ए-ज़िंदगी ही नहीं...

जो गुज़र दुश्मन है उस का रहगुज़र रक्खा है नाम ज़ात से अपनी न हिलने का सफ़र रक्खा है नाम पड़ गया है इक भँवर उस को समझ बैठे हैं घर लहर उठी है लहर का दीवार-ओ-दर रक्खा है नाम...

उस के होंटों पे रख के होंट अपने बात ही हम तमाम कर रहे हैं...

हम यहाँ ख़ुद आए हैं लाया नहीं कोई हमें और ख़ुदा का हम ने अपने नाम पर रक्खा है नाम...

ठीक है ख़ुद को हम बदलते हैं शुक्रिया मश्वरत का चलते हैं हो रहा हूँ मैं किस तरह बर्बाद देखने वाले हाथ मलते हैं...

मुझे ग़रज़ है मिरी जान ग़ुल मचाने से न तेरे आने से मतलब न तेरे जाने से अजीब है मिरी फ़ितरत कि आज ही मसलन मुझे सुकून मिला है तिरे न आने से...

बोलते क्यूँ नहीं मिरे हक़ में आबले पड़ गए ज़बान में क्या...