क़ातिल
सुना है तुम ने अपने आख़िरी लम्हों में समझा था कि तुम मेरी हिफ़ाज़त में हो मेरे बाज़ुओं में हो सुना है बुझते बुझते भी तुम्हारे सर्द ओ मुर्दा लब से एक शो'ला शोला-ए-याक़ूत-फ़ाम ओ रंग ओ उम्मीद-ए-फ़रोग़-ए-ज़िंदगी-आहंग लपका था हमें ख़ुद में छुपा लीजे ये मेरा वो अज़ाब-ए-जाँ है जो मुझ को मिरे अपने ख़ुद अपने ही जहन्नम में जलाता है तुम्हारा सीना-ए-सीमीं तुम्हारे बाज़ूवान-ए-मर-मरीं मेरे लिए मुझ इक हवसनाक-ए-फ़रोमाया की ख़ातिर साज़ ओ सामान-ए-नशात ओ नश्शा-ए-इशरत-फ़ुज़ूनी थे मिरे अय्याश लम्हों की फ़ुसूँ-गर पुर-जुनूनी के लिए सद-लज़्ज़त आगीं सद-करिश्मा पुर-ज़बानी थे तुम्हें मेरी हवस-पेशा मिरी सफ़्फ़ाक क़ातिल बेवफ़ाई का गुमाँ तक इस गुमाँ का एक वहम-ए-ख़ुद गुरेज़ाँ तक नहीं था क्यूँ नहीं था क्यूँ नहीं था क्यूँ कोई होता कोई तो होता जो मुझ से मिरी सफ़्फ़ाक क़ातिल बेवफ़ाई की सज़ा में ख़ून थुकवाता मुझे हर लम्हे की सूली पे लटकाता मगर फ़रियाद कोई भी नहीं कोई दरेग़ उफ़्ताद कोई भी मुझे मफ़रूर होना चाहिए था और मैं सफ़्फ़ाक-क़ातिल बेवफ़ा ख़ूँ-रेज़-तर मैं शहर में ख़ुद-वारदाती शहर में ख़ुद-मस्त आज़ादाना फिरता हूँ निगार-ए-ख़ाक-आसूदा बहार-ए-ख़ाक-आसूदा

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