शहर मेरा उदास गंगा सा कोई भी आए और अपने पाप खो के जाता है धोके जाता है आग का खेल खेलने वाले...
शाम तक सुब्ह की नज़रों से उतर जाते हैं इतने समझौतों पे जीते हैं कि मर जाते हैं फिर वही तल्ख़ी-ए-हालात मुक़द्दर ठहरी नश्शे कैसे भी हों कुछ दिन में उतर जाते हैं...
लहू न हो तो क़लम तर्जुमाँ नहीं होता हमारे दौर में आँसू ज़बाँ नहीं होता जहाँ रहेगा वहीं रौशनी लुटाएगा किसी चराग़ का अपना मकाँ नहीं होता...
अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपाएँ कैसे तेरी मर्ज़ी के मुताबिक़ नज़र आएँ कैसे घर सजाने का तसव्वुर तो बहुत ब'अद का है पहले ये तय हो कि इस घर को बचाएँ कैसे...
मैं जिन दिनों तिरे बारे में सोचता हूँ बहुत उन्हीं दिनों तो ये दुनिया समझ में आती है...
कुछ इतना ख़ौफ़ का मारा हुआ भी प्यार न हो वो ए'तिबार दिलाए और ए'तिबार न हो हवा ख़िलाफ़ हो मौजों पे इख़्तियार न हो ये कैसी ज़िद है कि दरिया किसी से पार न हो...
तहरीर से वर्ना मिरी क्या हो नहीं सकता इक तू है जो लफ़्ज़ों में अदा हो नहीं सकता आँखों में ख़यालात में साँसों में बसा है चाहे भी तो मुझ से वो जुदा हो नहीं सकता...
मेरा किया था मैं टूटा कि बिखरा रहा तेरे हाथों में तो इक खिलौना रहा इक ज़रा सी अना के लिए उम्र भर तुम भी तन्हा रहे मैं भी तन्हा रहा...
मेरे ग़म को जो अपना बताते रहे वक़्त पड़ने पे हाथों से जाते रहे बारिशें आईं और फ़ैसला कर गईं लोग टूटी छतें आज़माते रहे...
सिर्फ़ तेरा नाम ले कर रह गया आज दीवाना बहुत कुछ कह गया क्या मिरी तक़दीर में मंज़िल नहीं फ़ासला क्यूँ मुस्कुरा कर रह गया...
वक़्त के तेज़ गाम दरिया में तू किसी मौज की तरह उभरी आँखों आँखों में हो गई ओझल और मैं एक बुलबुले की तरह...
अपने अंदाज़ का अकेला था इस लिए मैं बड़ा अकेला था प्यार तो जन्म का अकेला था क्या मिरा तजरबा अकेला था...
चाँद का ख़्वाब उजालों की नज़र लगता है तू जिधर हो के गुज़र जाए ख़बर लगता है उस की यादों ने उगा रक्खे हैं सूरज इतने शाम का वक़्त भी आए तो सहर लगता है...
मैं अपने ख़्वाब से बिछड़ा नज़र नहीं आता तो इस सदी में अकेला नज़र नहीं आता अजब दबाओ है उन बाहरी हवाओं का घरों का बोझ भी उठता नज़र नहीं आता...
मोहब्बत के घरों के कच्चे-पन को ये कहाँ समझें इन आँखों को तो बस आता है बरसातें बड़ी करना...
कहाँ क़तरे की ग़म-ख़्वारी करे है समुंदर है अदाकारी करे है कोई माने न माने उस की मर्ज़ी मगर वो हुक्म तो जारी करे है...
कितना दुश्वार था दुनिया ये हुनर आना भी तुझ से ही फ़ासला रखना तुझे अपनाना भी कैसी आदाब-ए-नुमाइश ने लगाईं शर्तें फूल होना ही नहीं फूल नज़र आना भी...
मैं तुम से छूट रहा हूँ मिरे प्यारो मगर मिरा रिश्ता पुख़्ता हो रहा है इस ज़मीं से जिस की गोद में समाने के लिए मैं ने पूरी ज़िंदगी रीहरसल की है...
वो मेरे घर नहीं आता मैं उस के घर नहीं जाता मगर इन एहतियातों से तअल्लुक़ मर नहीं जाता...
मैं ने मुद्दत से कोई ख़्वाब नहीं देखा है रात खिलने का गुलाबों से महक आने का ओस की बूंदों में सूरज के समा जाने का चाँद सी मिट्टी के ज़र्रों से सदा आने का...
मैं ये नहीं कहता कि मिरा सर न मिलेगा लेकिन मिरी आँखों में तुझे डर न मिलेगा सर पर तो बिठाने को है तय्यार ज़माना लेकिन तिरे रहने को यहाँ घर न मिलेगा...