दुनिया ये दुखी है फिर भी मगर थक कर ही सही सो जाती है तेरे ही मुक़द्दर में ऐ दिल क्यूँ चैन नहीं आराम नहीं...
वो अदा-ए-दिलबरी हो कि नवा-ए-आशिक़ाना जो दिलों को फ़तह कर ले वही फ़ातेह-ए-ज़माना ये तिरा जमाल-ए-कामिल ये शबाब का ज़माना दिल-ए-दुश्मनाँ सलामत दिल-ए-दोस्ताँ निशाना...
कमाल-ए-तिश्नगी ही से बुझा लेते हैं प्यास अपनी इसी तपते हुए सहरा को हम दरिया समझते हैं...
दास्तान-ए-ग़म-ए-दिल उन को सुनाई न गई बात बिगड़ी थी कुछ ऐसी कि बनाई न गई सब को हम भूल गए जोश-ए-जुनूँ में लेकिन इक तिरी याद थी ऐसी जो भुलाई न गई...
अपना ही सा ऐ नर्गिस-ए-मस्ताना बना दे मैं जब तुझे जानूँ मुझे दीवाना बना दे हर क़ैद से हर रस्म से बेगाना बना दे दीवाना बना दे मुझे दीवाना बना दे...
दिल गया रौनक़-ए-हयात गई ग़म गया सारी काएनात गई दिल धड़कते ही फिर गई वो नज़र लब तक आई न थी कि बात गई...
कोई ये कह दे गुलशन गुलशन लाख बलाएँ एक नशेमन क़ातिल रहबर क़ातिल रहज़न दिल सा दोस्त न दिल सा दुश्मन...
क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क़ ने जाना है हम ख़ाक नशीनों की ठोकर में ज़माना है...
हज्व ने तो तिरा ऐ शैख़ भरम खोल दिया तू तो मस्जिद में है निय्यत तिरी मय-ख़ाने में...
यादश-ब-ख़ैर जब वो तसव्वुर में आ गया शेर ओ शबाब ओ हुस्न का दरिया बहा गया जब इश्क़ अपने मरकज़-ए-असली पे आ गया ख़ुद बन गया हसीन दो आलम पे छा गया...
वो जो रूठें यूँ मनाना चाहिए ज़िंदगी से रूठ जाना चाहिए हिम्मत-ए-क़ातिल बढ़ाना चाहिए ज़ेर-ए-ख़ंजर मुस्कुराना चाहिए...
सदाक़त हो तो दिल सीनों से खिंचने लगते हैं वाइज़ हक़ीक़त ख़ुद को मनवा लेती है मानी नहीं जाती...
मोहब्बत में इक ऐसा वक़्त भी दिल पर गुज़रता है कि आँसू ख़ुश्क हो जाते हैं तुग़्यानी नहीं जाती...
साक़ी की हर निगाह पे बल खा के पी गया लहरों से खेलता हुआ लहरा के पी गया बे-कैफ़ियों के कैफ़ से घबरा के पी गया तौबा को तोड़-ताड़ के थर्रा के पी गया...
शरमा गए लजा गए दामन छुड़ा गए ऐ इश्क़ मरहबा वो यहाँ तक तो आ गए दिल पर हज़ार तरह के औहाम छा गए ये तुम ने क्या किया मिरी दुनिया में आ गए...
रखते हैं ख़िज़्र से न ग़रज़ रहनुमा से हम चलते हैं बच के दूर हर इक नक़्श-ए-पा से हम मानूस हो चले हैं जो दिल की सदा से हम शायद कि जी उठे तिरी आवाज़-ए-पा से हम...