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उसी की शरह है ये उठते दर्द का आलम जो दास्ताँ थी निहाँ तेरे आँख उठाने में...

तुम इसे शिकवा समझ कर किस लिए शरमा गए मुद्दतों के बाद देखा था तो आँसू आ गए...

तिरी निगाह से बचने में उम्र गुज़री है उतर गया रग-ए-जाँ में ये नेश्तर फिर भी...

तुझ को पा कर भी न कम हो सकी बे-ताबी-ए-दिल इतना आसान तिरे इश्क़ का ग़म था ही नहीं...

शाम भी थी धुआँ धुआँ हुस्न भी था उदास उदास दिल को कई कहानियाँ याद सी आ के रह गईं...

तू याद आया तिरे जौर-ओ-सितम लेकिन न याद आए मोहब्बत में ये मासूमी बड़ी मुश्किल से आती है...

तबीअत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में हम ऐसे में तिरी यादों की चादर तान लेते हैं...

तेरे आने की क्या उमीद मगर कैसे कह दूँ कि इंतिज़ार नहीं...

तिरी निगाह सहारा न दे तो बात है और कि गिरते गिरते भी दुनिया सँभल तो सकती है...