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बोतलें खोल कर तो पी बरसों आज दिल खोल कर भी पी जाए...

इसे सामान-ए-सफ़र जान ये जुगनू रख ले राह में तीरगी होगी मिरे आँसू रख ले तू जो चाहे तो तिरा झूट भी बिक सकता है शर्त इतनी है कि सोने की तराज़ू रख ले...

तुम्हारे नाम पर मैं ने हर आफ़त सर पे रक्खी थी नज़र शोलों पे रक्खी थी ज़बाँ पत्थर पे रक्खी थी हमारे ख़्वाब तो शहरों की सड़कों पर भटकते थे तुम्हारी याद थी जो रात भर बिस्तर पे रक्खी थी...

मस्जिदों के सहन तक जाना बहुत दुश्वार था दैर से निकला तो मेरे रास्ते में दार था देखते ही देखते शहरों की रौनक़ बन गया कल यही चेहरा हमारे आइनों पर बार था...

मैं आ कर दुश्मनों में बस गया हूँ यहाँ हमदर्द हैं दो-चार मेरे...

पुराने दाँव पर हर दिन नए आँसू लगाता है वो अब भी इक फटे रूमाल पर ख़ुश्बू लगाता है उसे कह दो कि ये ऊँचाइयाँ मुश्किल से मिलती हैं वो सूरज के सफ़र में मोम के बाज़ू लगाता है...

अजनबी ख़्वाहिशें सीने में दबा भी न सकूँ ऐसे ज़िद्दी हैं परिंदे कि उड़ा भी न सकूँ फूँक डालूँगा किसी रोज़ मैं दिल की दुनिया ये तिरा ख़त तो नहीं है कि जिला भी न सकूँ...

रोज़ तारों को नुमाइश में ख़लल पड़ता है चाँद पागल है अँधेरे में निकल पड़ता है एक दीवाना मुसाफ़िर है मिरी आँखों में वक़्त-बे-वक़्त ठहर जाता है चल पड़ता है...

यूँ सदा देते हुए तेरे ख़याल आते हैं जैसे काबे की खुली छत पे बिलाल आते हैं रोज़ हम अश्कों से धो आते हैं दीवार-ए-हरम पगड़ियाँ रोज़ फ़रिश्तों की उछाल आते हैं...

मेरे कारोबार में सब ने बड़ी इमदाद की दाद लोगों की गला अपना ग़ज़ल उस्ताद की अपनी साँसें बेच कर मैं ने जिसे आबाद की वो गली जन्नत तो अब भी है मगर शद्दाद की...

ये ख़ाक-ज़ादे जो रहते हैं बे-ज़बान पड़े इशारा कर दें तो सूरज ज़मीं पे आन पड़े सुकूत-ए-ज़ीस्त को आमादा-ए-बग़ावत कर लहू उछाल कि कुछ ज़िंदगी में जान पड़े...

बहुत ग़ुरूर है दरिया को अपने होने पर जो मेरी प्यास से उलझे तो धज्जियाँ उड़ जाएँ...

शाम ने जब पलकों पे आतिश-दान लिया कुछ यादों ने चुटकी में लोबान लिया दरवाज़ों ने अपनी आँखें नम कर लीं दीवारों ने अपना सीना तान लिया...

उस की याद आई है साँसो ज़रा आहिस्ता चलो धड़कनों से भी इबादत में ख़लल पड़ता है...

रोज़ पत्थर की हिमायत में ग़ज़ल लिखते हैं रोज़ शीशों से कोई काम निकल पड़ता है...

रोज़ तारों को नुमाइश में ख़लल पड़ता है चाँद पागल है अँधेरे में निकल पड़ता है...

मिरी ख़्वाहिश है कि आँगन में न दीवार उठे मिरे भाई मिरे हिस्से की ज़मीं तू रख ले...

न हम-सफ़र न किसी हम-नशीं से निकलेगा हमारे पाँव का काँटा हमीं से निकलेगा...

मैं ने अपनी ख़ुश्क आँखों से लहू छलका दिया इक समुंदर कह रहा था मुझ को पानी चाहिए...

मैं पर्बतों से लड़ता रहा और चंद लोग गीली ज़मीन खोद के फ़रहाद हो गए...

हम से पहले भी मुसाफ़िर कई गुज़रे होंगे कम से कम राह के पत्थर तो हटाते जाते...

ख़याल था कि ये पथराव रोक दें चल कर जो होश आया तो देखा लहू लहू हम थे...

एक ही नद्दी के हैं ये दो किनारे दोस्तो दोस्ताना ज़िंदगी से मौत से यारी रखो...

दोस्ती जब किसी से की जाए दुश्मनों की भी राय ली जाए...

घर के बाहर ढूँढता रहता हूँ दुनिया घर के अंदर दुनिया-दारी रहती है...