ऐसा है कि सब ख़्वाब मुसलसल नहीं होते जो आज तो होते हैं मगर कल नहीं होते अंदर की फ़ज़ाओं के करिश्मे भी अजब हैं मेंह टूट के बरसे भी तो बादल नहीं होते...
क़ुर्ब-ए-जानाँ का न मय-ख़ाने का मौसम आया फिर से बे-सर्फ़ा उजड़ जाने का मौसम आया कुंज-ए-ग़ुर्बत मैं कभी गोशा-ए-ज़िंदाँ में थे हम जान-ए-जाँ जब भी तिरे आने का मौसम आया...
कल हम ने बज़्म-ए-यार में क्या क्या शराब पी सहरा की तिश्नगी थी सो दरिया शराब पी अपनों ने तज दिया है तो ग़ैरों में जा के बैठ ऐ ख़ानुमाँ-ख़राब न तन्हा शराब पी...
उस का अपना ही करिश्मा है फ़ुसूँ है यूँ है यूँ तो कहने को सभी कहते हैं यूँ है यूँ है जैसे कोई दर-ए-दिल पर हो सितादा कब से एक साया न दरूँ है न बरूँ है यूँ है...
गुज़र गए कई मौसम कई रुतें बदलें उदास तुम भी हो यारो उदास हम भी हैं फ़क़त तुम्हीं को नहीं रंज-ए-चाक-दामानी कि सच कहें तो दरीदा-लिबास हम भी हैं...
कशीदा सर से तवक़्क़ो अबस झुकाव की थी बिगड़ गया हूँ कि सूरत यही बनाव की थी वो जिस घमंड से बिछड़ा गिला तो इस का है कि सारी बात मोहब्बत में रख-रखाव की थी...
ये आलम शौक़ का देखा न जाए वो बुत है या ख़ुदा देखा न जाए ये किन नज़रों से तू ने आज देखा कि तेरा देखना देखा न जाए...
न सह सका जब मसाफ़तों के अज़ाब सारे तो कर गए कूच मेरी आँखों से ख़्वाब सारे बयाज़-ए-दिल पर ग़ज़ल की सूरत रक़म किए हैं तिरे करम भी तिरे सितम भी हिसाब सारे...
शिद्दत-ए-तिश्नगी में भी ग़ैरत-ए-मय-कशी रही उस ने जो फेर ली नज़र मैं ने भी जाम रख दिया...
तिरा क़ुर्ब था कि फ़िराक़ था वही तेरी जल्वागरी रही कि जो रौशनी तिरे जिस्म की थी मिरे बदन में भरी रही तिरे शहर में मैं चला था जब तो कोई भी साथ न था मिरे तो मैं किस से महव-ए-कलाम था तो ये किस की हम-सफ़री रही...
जब तिरी याद के जुगनू चमके देर तक आँख में आँसू चमके सख़्त तारीक है दिल की दुनिया ऐसे आलम में अगर तू चमके...
साक़िया एक नज़र जाम से पहले पहले हम को जाना है कहीं शाम से पहले पहले नौ-गिरफ़्तार-ए-वफ़ा सई-ए-रिहाई है अबस हम भी उलझे थे बहुत दाम से पहले पहले...
तेरे क़रीब आ के बड़ी उलझनों में हूँ मैं दुश्मनों में हूँ कि तिरे दोस्तों में हूँ मुझ से गुरेज़-पा है तो हर रास्ता बदल मैं संग-ए-राह हूँ तो सभी रास्तों में हूँ...
चल निकलती हैं ग़म-ए-यार से बातें क्या क्या हम ने भी कीं दर ओ दीवार से बातें क्या क्या बात बन आई है फिर से कि मिरे बारे में उस ने पूछीं मिरे ग़म-ख़्वार से बातें क्या क्या...
तुझ से मिल कर तो ये लगता है कि ऐ अजनबी दोस्त तू मिरी पहली मोहब्बत थी मिरी आख़िरी दोस्त लोग हर बात का अफ़्साना बना देते हैं ये तो दुनिया है मिरी जाँ कई दुश्मन कई दोस्त...
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं 'फ़राज़' अब ज़रा लहजा बदल के देखते हैं जुदाइयाँ तो मुक़द्दर हैं फिर भी जान-ए-सफ़र कुछ और दूर ज़रा साथ चल के देखते हैं...
दर्द की आग बुझा दो कि अभी वक़्त नहीं ज़ख़्म-ए-दिल जाग सके नश्तर-ए-ग़म रक़्स करे जो भी साँसों में घुला है उसे उर्यां न करो चुप भी शोला है मगर कोई न इल्ज़ाम धरे...
तुझे है मश्क़-ए-सितम का मलाल वैसे ही हमारी जान थी जाँ पर वबाल वैसे ही चला था ज़िक्र ज़माने की बेवफ़ाई का सो आ गया है तुम्हारा ख़याल वैसे ही...
जब भी दिल खोल के रोए होंगे लोग आराम से सोए होंगे बाज़ औक़ात ब-मजबूरी-ए-दिल हम तो क्या आप भी रोए होंगे...