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हम-सफ़र चाहिए हुजूम नहीं इक मुसाफ़िर भी क़ाफ़िला है मुझे...

कुछ मुश्किलें ऐसी हैं कि आसाँ नहीं होतीं कुछ ऐसे मुअम्मे हैं कभी हल नहीं होते...

न हरीफ़-ए-जाँ न शरीक-ए-ग़म शब-ए-इंतिज़ार कोई तो हो किसे बज़्म-ए-शौक़ में लाएँ हम दिल-ए-बे-क़रार कोई तो हो किसे ज़िंदगी है अज़ीज़ अब किसे आरज़ू-ए-शब-ए-तरब मगर ऐ निगार-ए-वफ़ा तलब तिरा ए'तिबार कोई तो हो...

न तेरा क़ुर्ब न बादा है क्या किया जाए फिर आज दुख भी ज़ियादा है क्या किया जाए...

सुना है उस के बदन की तराश ऐसी है कि फूल अपनी क़बाएँ कतर के देखते हैं...

जान से इश्क़ और जहाँ से गुरेज़ दोस्तों ने किया कहाँ से गुरेज़ इब्तिदा की तेरे क़सीदे से अब ये मुश्किल करूँ कहाँ से गुरेज़...

अगर तुम्हारी अना ही का है सवाल तो फिर चलो मैं हाथ बढ़ाता हूँ दोस्ती के लिए...

हमें भी अर्ज़-ए-तमन्ना का ढब नहीं आता मिज़ाज-ए-यार भी सादा है क्या किया जाए...

हवा के ज़ोर से पिंदार-ए-बाम-ओ-दर भी गया चराग़ को जो बचाते थे उन का घर भी गया पुकारते रहे महफ़ूज़ कश्तियों वाले मैं डूबता हुआ दरिया के पार उतर भी गया...

हम भी शाएर थे कभी जान-ए-सुख़न याद नहीं तुझ को भूले हैं तो दिल-दारी-ए-फ़न याद नहीं दिल से कल महव-ए-तकल्लुम थे तो मालूम हुआ कोई काकुल कोई लब कोई दहन याद नहीं...

मुद्दतों बाद मिला नामा-ए-जानाँ लेकिन न कोई दिल की हिकायत न कोई प्यार की बात न किसी हर्फ़ में महरूमी-ए-जाँ का क़िस्सा न किसी लफ़्ज़ में भूले हुए इक़रार की बात...

इक उम्र के बाद तुम मिले हो ऐ मेरे वतन के ख़ुश-नवाओ हर हिज्र का दिन था हश्र का दिन दोज़ख़ थे फ़िराक़ के अलाव...

अब क्या सोचें क्या हालात थे किस कारण ये ज़हर पिया है हम ने उस के शहर को छोड़ा और आँखों को मूँद लिया है अपना ये शेवा तो नहीं था अपने ग़म औरों को सौंपें ख़ुद तो जागते या सोते हैं उस को क्यूँ बे-ख़्वाब किया है...

हुज़ूर आप और निस्फ़ शब मिरे मकान पर हुज़ूर की तमाम-तर बलाएँ मेरी जान पर हुज़ूर ख़ैरियत तो है हुज़ूर क्यूँ ख़मोश हैं हुज़ूर बोलिए कि वसवसे वबाल-ए-होश हैं...

किस को बिकना था मगर ख़ुश हैं कि इस हीले से हो गईं अपने ख़रीदार से बातें क्या क्या...

कस बोझ से जिस्म टूटता है इतना तो कड़ा सफ़र नहीं था वो चार क़दम का फ़ासला क्या फिर राह से बे-ख़बर नहीं था...

तेरे क़ामत से भी लिपटी है अमर-बेल कोई मेरी चाहत को भी दुनिया की नज़र खा गई दोस्त...

तमाम उम्र कहाँ कोई साथ देता है ये जानता हूँ मगर थोड़ी दूर साथ चलो...

बैठे थे लोग पहलू-ब-पहलू पिए हुए इक हम थे तेरी बज़्म में आँसू पिए हुए देखा जिसे भी उस की मोहब्बत में मस्त था जैसे तमाम शहर हो दारू पिए हुए...

जुज़ तिरे कोई भी दिन रात न जाने मेरे तू कहाँ है मगर ऐ दोस्त पुराने मेरे तू भी ख़ुशबू है मगर मेरा तजस्सुस बेकार बर्ग-ए-आवारा की मानिंद ठिकाने मेरे...

नहीं कि नामा-बरों को तलाश करते हैं हम अपने बे-ख़बरों को तलाश करते हैं मोहब्बतों का भी मौसम है जब गुज़र जाए सब अपने अपने घरों को तलाश करते हैं...

'फ़राज़' तेरे जुनूँ का ख़याल है वर्ना ये क्या ज़रूर वो सूरत सभी को प्यारी लगे...

गुफ़्तुगू अच्छी लगी ज़ौक़-ए-नज़र अच्छा लगा मुद्दतों के बाद कोई हम-सफ़र अच्छा लगा दिल का दुख जाना तो दिल का मसअला है पर हमें उस का हँस देना हमारे हाल पर अच्छा लगा...

किस से डरते हो कि सब लोग तुम्हारी ही तरह एक से हैं वही आँखें वही चेहरे वही दिल किस पे शक करते हो जितने भी मुसाफ़िर हैं यहाँ एक ही सब का क़बीला वही पैकर वही गिल...

रुके तो गर्दिशें उस का तवाफ़ करती हैं चले तो उस को ज़माने ठहर के देखते हैं...

दिल को तिरी चाहत पे भरोसा भी बहुत है और तुझ से बिछड़ जाने का डर भी नहीं जाता...

उस ने सुकूत-ए-शब में भी अपना पयाम रख दिया हिज्र की रात बाम पर माह-ए-तमाम रख दिया आमद-ए-दोस्त की नवेद कू-ए-वफ़ा में आम थी मैं ने भी इक चराग़ सा दिल सर-ए-शाम रख दिया...

मुंतज़िर कब से तहय्युर है तिरी तक़रीर का बात कर तुझ पर गुमाँ होने लगा तस्वीर का रात क्या सोए कि बाक़ी उम्र की नींद उड़ गई ख़्वाब क्या देखा कि धड़का लग गया ताबीर का...

उस को जुदा हुए भी ज़माना बहुत हुआ अब क्या कहें ये क़िस्सा पुराना बहुत हुआ...

रात क्या सोए कि बाक़ी उम्र की नींद उड़ गई ख़्वाब क्या देखा कि धड़का लग गया ताबीर का...

हम ख़्वाबों के ब्योपारी थे पर इस में हुआ नुक़सान बड़ा कुछ बख़्त में ढेरों कालक थी कुछ अब के ग़ज़ब का काल पड़ा...

'फ़राज़' तू ने उसे मुश्किलों में डाल दिया ज़माना साहब-ए-ज़र और सिर्फ़ शाएर तू...

अभी तो जाग रहे हैं चराग़ राहों के अभी है दूर सहर थोड़ी दूर साथ चलो...

हमारी चाहतों की बुज़-दिली थी वर्ना क्या होता अगर ये शौक़ के मज़मूँ वफ़ा के अहद-नामे...

आज इक और बरस बीत गया उस के बग़ैर जिस के होते हुए होते थे ज़माने मेरे...

भेद पाएँ तो रह-ए-यार में गुम हो जाएँ वर्ना किस वास्ते बेकार में गुम हो जाएँ क्या करें अर्ज़-ए-तमन्ना कि तुझे देखते ही लफ़्ज़ पैराया-ए-इज़हार में गुम हो जाएँ...

भरी बहार में इक शाख़ पर खिला है गुलाब कि जैसे तू ने हथेली पे गाल रक्खा है...

क़ुर्बतें लाख ख़ूब-सूरत हों दूरियों में भी दिलकशी है अभी...

दिल भी पागल है कि उस शख़्स से वाबस्ता है जो किसी और का होने दे न अपना रक्खे...

सब लोग लिए संग-ए-मलामत निकल आए किस शहर में हम अहल-ए-मोहब्बत निकल आए अब दिल की तमन्ना है तो ऐ काश यही हो आँसू की जगह आँख से हसरत निकल आए...