न हरीफ़-ए-जाँ न शरीक-ए-ग़म शब-ए-इंतिज़ार कोई तो हो किसे बज़्म-ए-शौक़ में लाएँ हम दिल-ए-बे-क़रार कोई तो हो किसे ज़िंदगी है अज़ीज़ अब किसे आरज़ू-ए-शब-ए-तरब मगर ऐ निगार-ए-वफ़ा तलब तिरा ए'तिबार कोई तो हो...
जान से इश्क़ और जहाँ से गुरेज़ दोस्तों ने किया कहाँ से गुरेज़ इब्तिदा की तेरे क़सीदे से अब ये मुश्किल करूँ कहाँ से गुरेज़...
हवा के ज़ोर से पिंदार-ए-बाम-ओ-दर भी गया चराग़ को जो बचाते थे उन का घर भी गया पुकारते रहे महफ़ूज़ कश्तियों वाले मैं डूबता हुआ दरिया के पार उतर भी गया...
हम भी शाएर थे कभी जान-ए-सुख़न याद नहीं तुझ को भूले हैं तो दिल-दारी-ए-फ़न याद नहीं दिल से कल महव-ए-तकल्लुम थे तो मालूम हुआ कोई काकुल कोई लब कोई दहन याद नहीं...
मुद्दतों बाद मिला नामा-ए-जानाँ लेकिन न कोई दिल की हिकायत न कोई प्यार की बात न किसी हर्फ़ में महरूमी-ए-जाँ का क़िस्सा न किसी लफ़्ज़ में भूले हुए इक़रार की बात...
इक उम्र के बाद तुम मिले हो ऐ मेरे वतन के ख़ुश-नवाओ हर हिज्र का दिन था हश्र का दिन दोज़ख़ थे फ़िराक़ के अलाव...
अब क्या सोचें क्या हालात थे किस कारण ये ज़हर पिया है हम ने उस के शहर को छोड़ा और आँखों को मूँद लिया है अपना ये शेवा तो नहीं था अपने ग़म औरों को सौंपें ख़ुद तो जागते या सोते हैं उस को क्यूँ बे-ख़्वाब किया है...
हुज़ूर आप और निस्फ़ शब मिरे मकान पर हुज़ूर की तमाम-तर बलाएँ मेरी जान पर हुज़ूर ख़ैरियत तो है हुज़ूर क्यूँ ख़मोश हैं हुज़ूर बोलिए कि वसवसे वबाल-ए-होश हैं...
कस बोझ से जिस्म टूटता है इतना तो कड़ा सफ़र नहीं था वो चार क़दम का फ़ासला क्या फिर राह से बे-ख़बर नहीं था...
बैठे थे लोग पहलू-ब-पहलू पिए हुए इक हम थे तेरी बज़्म में आँसू पिए हुए देखा जिसे भी उस की मोहब्बत में मस्त था जैसे तमाम शहर हो दारू पिए हुए...
जुज़ तिरे कोई भी दिन रात न जाने मेरे तू कहाँ है मगर ऐ दोस्त पुराने मेरे तू भी ख़ुशबू है मगर मेरा तजस्सुस बेकार बर्ग-ए-आवारा की मानिंद ठिकाने मेरे...
नहीं कि नामा-बरों को तलाश करते हैं हम अपने बे-ख़बरों को तलाश करते हैं मोहब्बतों का भी मौसम है जब गुज़र जाए सब अपने अपने घरों को तलाश करते हैं...
गुफ़्तुगू अच्छी लगी ज़ौक़-ए-नज़र अच्छा लगा मुद्दतों के बाद कोई हम-सफ़र अच्छा लगा दिल का दुख जाना तो दिल का मसअला है पर हमें उस का हँस देना हमारे हाल पर अच्छा लगा...
किस से डरते हो कि सब लोग तुम्हारी ही तरह एक से हैं वही आँखें वही चेहरे वही दिल किस पे शक करते हो जितने भी मुसाफ़िर हैं यहाँ एक ही सब का क़बीला वही पैकर वही गिल...
उस ने सुकूत-ए-शब में भी अपना पयाम रख दिया हिज्र की रात बाम पर माह-ए-तमाम रख दिया आमद-ए-दोस्त की नवेद कू-ए-वफ़ा में आम थी मैं ने भी इक चराग़ सा दिल सर-ए-शाम रख दिया...
मुंतज़िर कब से तहय्युर है तिरी तक़रीर का बात कर तुझ पर गुमाँ होने लगा तस्वीर का रात क्या सोए कि बाक़ी उम्र की नींद उड़ गई ख़्वाब क्या देखा कि धड़का लग गया ताबीर का...
हम ख़्वाबों के ब्योपारी थे पर इस में हुआ नुक़सान बड़ा कुछ बख़्त में ढेरों कालक थी कुछ अब के ग़ज़ब का काल पड़ा...
भेद पाएँ तो रह-ए-यार में गुम हो जाएँ वर्ना किस वास्ते बेकार में गुम हो जाएँ क्या करें अर्ज़-ए-तमन्ना कि तुझे देखते ही लफ़्ज़ पैराया-ए-इज़हार में गुम हो जाएँ...
सब लोग लिए संग-ए-मलामत निकल आए किस शहर में हम अहल-ए-मोहब्बत निकल आए अब दिल की तमन्ना है तो ऐ काश यही हो आँसू की जगह आँख से हसरत निकल आए...