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दुख फ़साना नहीं कि तुझ से कहें दिल भी माना नहीं कि तुझ से कहें आज तक अपनी बेकली का सबब ख़ुद भी जाना नहीं कि तुझ से कहें...

किसी जानिब से भी परचम न लहू का निकला अब के मौसम में भी आलम वही हू का निकला दस्त-ए-क़ातिल से कुछ उम्मीद-ए-शफ़ा थी लेकिन नोक-ए-ख़ंजर से भी काँटा न गुलू का निकला...

रात भर हँसते हुए तारों ने उन के आरिज़ भी भिगोए होंगे...

ज़िंदगी से यही गिला है मुझे तू बहुत देर से मिला है मुझे...

रात के पिछले पहर रोने के आदी रोए आप आए भी मगर रोने के आदी रोए उन के आ जाने से कुछ थम से गए थे आँसू उन के जाते ही मगर रोने के आदी रोए...

करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे वो ख़ार ख़ार है शाख़-ए-गुलाब की मानिंद मैं ज़ख़्म ज़ख़्म हूँ फिर भी गले लगाऊँ उसे...

तेरे होते हुए आ जाती थी सारी दुनिया आज तन्हा हूँ तो कोई नहीं आने वाला...

न तुझ को मात हुई है न मुझ को मात हुई सो अब के दोनों ही चालें बदल के देखते हैं...

हर तरह की बे-सर-ओ-सामानियों के बावजूद आज वो आया तो मुझ को अपना घर अच्छा लगा...

जिस से ये तबीअत बड़ी मुश्किल से लगी थी देखा तो वो तस्वीर हर इक दिल से लगी थी तन्हाई में रोते हैं कि यूँ दिल को सुकूँ हो ये चोट किसी साहब-ए-महफ़िल से लगी थी...

किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम तू मुझ से ख़फ़ा है तो ज़माने के लिए आ...

आशिक़ी में 'मीर' जैसे ख़्वाब मत देखा करो बावले हो जाओगे महताब मत देखा करो...

जिस सम्त भी देखूँ नज़र आता है कि तुम हो ऐ जान-ए-जहाँ ये कोई तुम सा है कि तुम हो...

अब और क्या किसी से मरासिम बढ़ाएँ हम ये भी बहुत है तुझ को अगर भूल जाएँ हम सहरा-ए-ज़िंदगी में कोई दूसरा न था सुनते रहे हैं आप ही अपनी सदाएँ हम...

न दिल से आह न लब से सदा निकलती है मगर ये बात बड़ी दूर जा निकलती है सितम तो ये है कि अहद-ए-सितम के जाते ही तमाम ख़ल्क़ मिरी हम-नवा निकलती है...

ये आख़िरी साअत शाम की है ये शाम जो है महजूरी की ये शाम अपनों से दूरी की इस शाम उफ़ुक़ के होंटों पर...

उस ने कहा सुन अहद निभाने की ख़ातिर मत आना अहद निभाने वाले अक्सर...

वो वक़्त आ गया है कि साहिल को छोड़ कर गहरे समुंदरों में उतर जाना चाहिए...

दिल-गिरफ़्ता ही सही बज़्म सजा ली जाए याद-ए-जानाँ से कोई शाम न ख़ाली जाए रफ़्ता रफ़्ता यही ज़िंदाँ में बदल जाते हैं अब किसी शहर की बुनियाद न डाली जाए...

ज़िंदगी पर इस से बढ़ कर तंज़ क्या होगा 'फ़राज़' उस का ये कहना कि तू शाएर है दीवाना नहीं...

जनम का अंधा जो सोच और सच के रास्तों पर कभी कभी कोई ख़्वाब देखे तो ख़्वाब में भी...

अब उसे लोग समझते हैं गिरफ़्तार मिरा सख़्त नादिम है मुझे दाम में लाने वाला...

मर गए प्यास के मारे तो उठा अब्र-ए-करम बुझ गई बज़्म तो अब शम्अ जलाता क्या है...

मुंतज़िर किस का हूँ टूटी हुई दहलीज़ पे मैं कौन आएगा यहाँ कौन है आने वाला...

सो देख कर तिरे रुख़्सार ओ लब यक़ीं आया कि फूल खिलते हैं गुलज़ार के अलावा भी...

वो कैसा शोबदा-गर था जो मसनूई सितारों और नक़ली सूरजों की इक झलक दिखला के...

मय-कदे में क्या तकल्लुफ़ मय-कशी में क्या हिजाब बज़्म-ए-साक़ी में अदब आदाब मत देखा करो...

हम तिरे शौक़ में यूँ ख़ुद को गँवा बैठे हैं जैसे बच्चे किसी त्यौहार में गुम हो जाएँ...

नौहागरों में दीदा-ए-तर भी उसी का था मुझ पर ये ज़ुल्म बार-ए-दिगर भी उसी का था देखा मुझे तो तर्क-ए-तअल्लुक़ के बावजूद वो मुस्कुरा दिया ये हुनर भी उसी का था...

ढूँड उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें...

सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते जाते वर्ना इतने तो मरासिम थे कि आते जाते...

लो फिर तिरे लबों पे उसी बेवफ़ा का ज़िक्र अहमद 'फ़राज़' तुझ से कहा न बहुत हुआ...

सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं...

सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं...

अब के तजदीद-ए-वफ़ा का नहीं इम्काँ जानाँ याद क्या तुझ को दिलाएँ तिरा पैमाँ जानाँ यूँही मौसम की अदा देख के याद आया है किस क़दर जल्द बदल जाते हैं इंसाँ जानाँ...

ज़िंदगी तेरी अता थी सो तिरे नाम की है हम ने जैसे भी बसर की तिरा एहसाँ जानाँ...

ज़िंदगी फैली हुई थी शाम-ए-हिज्राँ की तरह किस को इतना हौसला था कौन जी कर देखता...

आँख से दूर न हो दिल से उतर जाएगा वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जाएगा...

बहुत दिनों से नहीं है कुछ उस की ख़ैर ख़बर चलो 'फ़राज़' को ऐ यार चल के देखते हैं...

रोग ऐसे भी ग़म-ए-यार से लग जाते हैं दर से उठते हैं तो दीवार से लग जाते हैं इश्क़ आग़ाज़ में हल्की सी ख़लिश रखता है बाद में सैकड़ों आज़ार से लग जाते हैं...