दुख फ़साना नहीं कि तुझ से कहें दिल भी माना नहीं कि तुझ से कहें आज तक अपनी बेकली का सबब ख़ुद भी जाना नहीं कि तुझ से कहें...
किसी जानिब से भी परचम न लहू का निकला अब के मौसम में भी आलम वही हू का निकला दस्त-ए-क़ातिल से कुछ उम्मीद-ए-शफ़ा थी लेकिन नोक-ए-ख़ंजर से भी काँटा न गुलू का निकला...
रात के पिछले पहर रोने के आदी रोए आप आए भी मगर रोने के आदी रोए उन के आ जाने से कुछ थम से गए थे आँसू उन के जाते ही मगर रोने के आदी रोए...
करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे वो ख़ार ख़ार है शाख़-ए-गुलाब की मानिंद मैं ज़ख़्म ज़ख़्म हूँ फिर भी गले लगाऊँ उसे...
जिस से ये तबीअत बड़ी मुश्किल से लगी थी देखा तो वो तस्वीर हर इक दिल से लगी थी तन्हाई में रोते हैं कि यूँ दिल को सुकूँ हो ये चोट किसी साहब-ए-महफ़िल से लगी थी...
अब और क्या किसी से मरासिम बढ़ाएँ हम ये भी बहुत है तुझ को अगर भूल जाएँ हम सहरा-ए-ज़िंदगी में कोई दूसरा न था सुनते रहे हैं आप ही अपनी सदाएँ हम...
न दिल से आह न लब से सदा निकलती है मगर ये बात बड़ी दूर जा निकलती है सितम तो ये है कि अहद-ए-सितम के जाते ही तमाम ख़ल्क़ मिरी हम-नवा निकलती है...
ये आख़िरी साअत शाम की है ये शाम जो है महजूरी की ये शाम अपनों से दूरी की इस शाम उफ़ुक़ के होंटों पर...
दिल-गिरफ़्ता ही सही बज़्म सजा ली जाए याद-ए-जानाँ से कोई शाम न ख़ाली जाए रफ़्ता रफ़्ता यही ज़िंदाँ में बदल जाते हैं अब किसी शहर की बुनियाद न डाली जाए...
ज़िंदगी पर इस से बढ़ कर तंज़ क्या होगा 'फ़राज़' उस का ये कहना कि तू शाएर है दीवाना नहीं...
मय-कदे में क्या तकल्लुफ़ मय-कशी में क्या हिजाब बज़्म-ए-साक़ी में अदब आदाब मत देखा करो...
नौहागरों में दीदा-ए-तर भी उसी का था मुझ पर ये ज़ुल्म बार-ए-दिगर भी उसी का था देखा मुझे तो तर्क-ए-तअल्लुक़ के बावजूद वो मुस्कुरा दिया ये हुनर भी उसी का था...
अब के तजदीद-ए-वफ़ा का नहीं इम्काँ जानाँ याद क्या तुझ को दिलाएँ तिरा पैमाँ जानाँ यूँही मौसम की अदा देख के याद आया है किस क़दर जल्द बदल जाते हैं इंसाँ जानाँ...
रोग ऐसे भी ग़म-ए-यार से लग जाते हैं दर से उठते हैं तो दीवार से लग जाते हैं इश्क़ आग़ाज़ में हल्की सी ख़लिश रखता है बाद में सैकड़ों आज़ार से लग जाते हैं...