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फिर शब-ए-ग़म ने मुझे शक्ल दिखाई क्यूँकर ये बला घर से निकाली हुई आई क्यूँकर कट सके सख़्ती-ए-अय्याम-ए-जुदाई क्यूँकर ग़ैर को आए इलाही मिरी आई क्यूँकर...

क़रीने से अजब आरास्ता क़ातिल की महफ़िल है जहाँ सर चाहिए सर है जहाँ दिल चाहिए दिल है हर इक के वास्ते कब इश्क़ की दुश्वार मंज़िल है जिसे आसाँ है आसाँ है जिसे मुश्किल है मुश्किल है...

सबक़ ऐसा पढ़ा दिया तू ने दिल से सब कुछ भुला दिया तू ने...

अजब अपना हाल होता जो विसाल-ए-यार होता कभी जान सदक़े होती कभी दिल निसार होता कोई फ़ित्ना ता-क़यामत न फिर आश्कार होता तिरे दिल पे काश ज़ालिम मुझे इख़्तियार होता...

न रोना है तरीक़े का न हँसना है सलीक़े का परेशानी में कोई काम जी से हो नहीं सकता...

मिरी आह का तुम असर देख लेना वो आएँगे थामे जिगर देख लेना...

तमाशा-ए-दैर-ओ-हरम देखते हैं तुझे हर बहाने से हम देखते हैं...

इस नहीं का कोई इलाज नहीं रोज़ कहते हैं आप आज नहीं कल जो था आज वो मिज़ाज नहीं इस तलव्वुन का कुछ इलाज नहीं...

फिरे राह से वो यहाँ आते आते अजल मर रही तू कहाँ आते आते न जाना कि दुनिया से जाता है कोई बहुत देर की मेहरबाँ आते आते...

हज़ारों काम मोहब्बत में हैं मज़े के 'दाग़' जो लोग कुछ नहीं करते कमाल करते हैं...

मुझ गुनहगार को जो बख़्श दिया तो जहन्नम को क्या दिया तू ने...

ख़ूब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं...

यूँ मेरे साथ दफ़्न दिल-ए-बे-क़रार हो छोटा सा इक मज़ार के अंदर मज़ार हो...

ये सैर है कि दुपट्टा उड़ा रही है हवा छुपाते हैं जो वो सीना कमर नहीं छुपती...

ये गुस्ताख़ी ये छेड़ अच्छी नहीं है ऐ दिल-ए-नादाँ अभी फिर रूठ जाएँगे अभी तो मन के बैठे हैं...

ये तो नहीं कि तुम सा जहाँ में हसीं नहीं इस दिल को क्या करूँ ये बहलता कहीं नहीं...

ये तो कहिए इस ख़ता की क्या सज़ा मैं जो कह दूँ आप पर मरता हूँ मैं...

वो ज़माना भी तुम्हें याद है तुम कहते थे दोस्त दुनिया में नहिं 'दाग़' से बेहतर अपना...

वो अयादत के लिए आए हैं लो और सही आज ही ख़ूबी-ए-तक़दीर से हाल अच्छा है...

वो दिन गए कि 'दाग़' थी हर दम बुतों की याद पढ़ते हैं पाँच वक़्त की अब तो नमाज़ हम...

वो कहते हैं क्या ज़ोर उठाओगे तुम ऐ 'दाग़' तुम से तो मिरा नाज़ उठाया नहीं जाता...

वादा झूटा कर लिया चलिए तसल्ली हो गई है ज़रा सी बात ख़ुश करना दिल-ए-नाशाद का...

वाइज़ बड़ा मज़ा हो अगर यूँ अज़ाब हो दोज़ख़ में पाँव हाथ में जाम-ए-शराब हो...

वफ़ा करेंगे निबाहेंगे बात मानेंगे तुम्हें भी याद है कुछ ये कलाम किस का था...

उज़्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं बाइस-ए-तर्क-ए-मुलाक़ात बताते भी नहीं...

उर्दू है जिस का नाम हमीं जानते हैं 'दाग़' हिन्दोस्ताँ में धूम हमारी ज़बाँ की है...

कहते हैं जिस को हूर वो इंसाँ तुम्हीं तो हो जाती है जिस पे जान मिरी जाँ तुम्हीं तो हो मतलब की कह रहे हैं वो दाना हमीं तो हैं मतलब की पूछते हो वो नादाँ तुम्हीं तो हो...

ज़िद हर इक बात पर नहीं अच्छी दोस्त की दोस्त मान लेते हैं...

ज़ीस्त से तंग हो ऐ दाग़ तो जीते क्यूँ हो जान प्यारी भी नहीं जान से जाते भी नहीं...

शब-ए-विसाल है गुल कर दो इन चराग़ों को ख़ुशी की बज़्म में क्या काम जलने वालों का...

ज़िक्र-ए-मेहर-ओ-वफ़ा तो हम करते पर तुम्हें शर्मसार कौन करे...

ज़माना दोस्ती पर इन हसीनों की न इतराए ये आलम-दोस्त अक्सर दुश्मन-ए-आलम भी होते हैं...