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सरापा आरज़ू होने ने बंदा कर दिया हम को वगर्ना हम ख़ुदा थे गर दिल-ए-बे-मुद्दआ होते...

अब के जुनूँ में फ़ासला शायद न कुछ रहे दामन के चाक और गिरेबाँ के चाक में...

वे दिन गए कि आँखें दरिया सी बहतियाँ थीं सूखा पड़ा है अब तो मुद्दत से ये दो-आबा...

क़बा-ए-लाला-ओ-गुल में झलक रही थी ख़िज़ाँ भरी बहार में रोया किए बहार को हम...

मक्का गया मदीना गया कर्बला गया जैसा गया था वैसा ही चल फिर के आ गया देखा हो कुछ उस आमद-ओ-शुद में तो मैं कहूँ ख़ुद गुम हुआ हूँ बात की तह अब जो पा गया...

अब कर के फ़रामोश तो नाशाद करोगे पर हम जो न होंगे तो बहुत याद करोगे...

आए हैं 'मीर' काफ़िर हो कर ख़ुदा के घर में पेशानी पर है क़श्क़ा ज़ुन्नार है कमर में नाज़ुक बदन है कितना वो शोख़-चश्म दिलबर जान उस के तन के आगे आती नहीं नज़र में...

'मीर' उन नीम-बाज़ आँखों में सारी मस्ती शराब की सी है...

सदा हम तो खोए गए से रहे कभू आप में तुम ने पाया हमें...

शर्त सलीक़ा है हर इक अम्र में ऐब भी करने को हुनर चाहिए...

ये जो मोहलत जिसे कहे हैं उम्र देखो तो इंतिज़ार सा है कुछ...

गुफ़्तुगू रेख़्ते में हम से न कर ये हमारी ज़बान है प्यारे...

ग़म रहा जब तक कि दम में दम रहा दिल के जाने का निहायत ग़म रहा...

रात तो सारी गई सुनते परेशाँ-गोई 'मीर'-जी कोई घड़ी तुम भी तो आराम करो...

ज़िंदाँ में भी शोरिश न गई अपने जुनूँ की अब संग मुदावा है इस आशुफ़्ता-सरी का...

ब-रंग-ए-बू-ए-गुल उस बाग़ के हम आश्ना होते कि हमराह-ए-सबा टुक सैर करते फिर हवा होते सरापा आरज़ू होने ने बंदा कर दिया हम को वगरना हम ख़ुदा थे गर दिल-ए-बे-मुद्दआ होते...

होती है गरचे कहने से यारो पराई बात पर हम से तो थंबे न कभू मुँह पर आई बात जाने न तुझ को जो ये तसन्नो तू उस से कर तिस पर भी तो छुपी नहीं रहती बनाई बात...

शिकवा-ए-आबला अभी से 'मीर' है पियारे हनूज़ दिल्ली दूर...

हस्ती अपनी हबाब की सी है ये नुमाइश सराब की सी है नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए पंखुड़ी इक गुलाब की सी है...

जिस सर को ग़ुरूर आज है याँ ताज-वरी का कल उस पे यहीं शोर है फिर नौहागरी का...

यूँ नाकाम रहेंगे कब तक जी में है इक काम करें रुस्वा हो कर मर जावें उस को भी बदनाम करें...

कुछ करो फ़िक्र मुझ दीवाने की धूम है फिर बहार आने की दिल का उस कुंज-ए-लब से दे है निशाँ बात लगती तो है ठिकाने की...

शिकवा-ए-आबला अभी से 'मीर' है प्यारे हनूज़ दिल्ली दूर...

बे-यार शहर दिल का वीरान हो रहा है दिखलाई दे जहाँ तक मैदान हो रहा है इस मंज़िल-ए-जहाँ के बाशिंदे रफ़तनी हैं हर इक के हाँ सफ़र का सामान हो रहा है...

हस्ती अपनी हबाब की सी है ये नुमाइश सराब की सी है...

कुछ नहीं सूझता हमें उस बिन शौक़ ने हम को बे-हवास किया...

शहर से यार सवार हुआ जो सवाद में ख़ूब ग़ुबार है आज दश्ती वहश ओ तैर उस के सर तेज़ी ही में शिकार है आज बरफ़रोख़्ता रुख़ है उस का किस ख़ूबी से मस्ती में पी के शराब शगुफ़्ता हुआ है उस नौ-गुल पे बहार है आज...

'मीर' को क्यूँ न मुग़्तनिम जाने अगले लोगों में इक रहा है ये...

हम जानते तो इश्क़ न करते किसू के साथ ले जाते दिल को ख़ाक में इस आरज़ू के साथ...

होश जाता नहीं रहा लेकिन जब वो आता है तब नहीं आता...

चमन में गुल ने जो कल दावा-ए-जमाल किया जमाल-ए-यार ने मुँह उस का ख़ूब लाल किया फ़लक ने आह तिरी रह में हम को पैदा कर ब-रंग-ए-सब्ज़-ए-नूरस्ता पाएमाल किया...

हम तौर-ए-इश्क़ से तो वाक़िफ़ नहीं हैं लेकिन सीने में जैसे कोई दिल को मला करे है...

ले साँस भी आहिस्ता कि नाज़ुक है बहुत काम आफ़ाक़ की इस कारगह-ए-शीशागरी का...

चलते हो तो चमन को चलिए कहते हैं कि बहाराँ है पात हरे हैं फूल खिले हैं कम कम बाद ओ बाराँ है रंग हवा से यूँ टपके है जैसे शराब चुवाते हैं आगे हो मय-ख़ाने के निकलो अहद-ए-बादा-गुसाराँ है...

बातें हमारी याद रहें फिर बातें ऐसी न सुनिएगा पढ़ते किसू को सुनिएगा तो देर तलक सर धुनिएगा सई ओ तलाश बहुत सी रहेगी इस अंदाज़ के कहने की सोहबत में उलमा फ़ुज़ला की जा कर पढ़िए गिनयेगा...

इश्क़ में ज़िल्लत हुई ख़िफ़्फ़त हुई तोहमत हुई आख़िर आख़िर जान दी यारों ने ये सोहबत हुई अक्स उस बे-दीद का तो मुत्तसिल पड़ता था सुब्ह दिन चढ़े क्या जानूँ आईने की क्या सूरत हुई...

दिल्ली में आज भीक भी मिलती नहीं उन्हें था कल तलक दिमाग़ जिन्हें ताज-ओ-तख़्त का...

जिन जिन को था ये इश्क़ का आज़ार मर गए अक्सर हमारे साथ के बीमार मर गए होता नहीं है उस लब-ए-नौ-ख़त पे कोई सब्ज़ ईसा ओ ख़िज़्र क्या सभी यक-बार मर गए...

जब कि पहलू से यार उठता है दर्द बे-इख़्तियार उठता है...

दीदनी है शिकस्तगी दिल की क्या इमारत ग़मों ने ढाई है...